२१३: पत्र : महादेव देसाईको
आषाढ़ बदी १ [७ जुलाई, १९२५][१]
तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लिखूँ ही। तुम्हारी भेजी हुई डाक मिल गई है। खादी प्रतिष्ठानके पतेपर भेजी हुई डाक अभी यहाँ नहीं पहुँची है। वहाँ जानेपर धन-संग्रहके सम्बन्धमें पत्रोंमें कुछ लिखूँगा। पत्रोंमें मेरे भाषणोंका सार तो छपता ही होगा। वह लेख ठीक है। मैंने यहाँ [मिदनापुरमें] रानीको चरखेका पाठ दिया है। उन्होंने कातनेकी प्रतिज्ञा भी की है। मैं चीनीसे पूछताछ तो अवश्य करूँगा। यदि वह रखा जा सके तो मैं उसे जरूर रखना चाहता हूँ। तुम उसे अपने पास रख लेना। वह हिन्दुस्तानी सीख ले तो अच्छा है। मैं कल दिनमें चार बार सोया। अभी मेरी सोनेकी भूख मिटी नहीं है। मुझे चाँदीके बर्तनोंमें खाना तो बहुतोंने सिखाया है, अब यहाँ शुद्ध सोनेके बर्तनोंमें खाना सीख रहा हूँ। लकड़ीकी मेरी रकाबी और उसमें सोनेका कटोरा! ऐसी पूजा कैसे स्वीकार की जा सकती है? मैं तो देखता ही रह गया। रानीसे मैंने एक शब्द भी नहीं कहा। क्या ईश्वर मेरी परीक्षा ले रहा है? वह कबतक मेरी ऐसी परीक्षा लेता रहेगा? इस देशमें कैसी श्रद्धा है? रक्षा करो, प्रभु, रक्षा करो।
बापूके आशीर्वाद
गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ ११४३०) की फोटो-नकलसे।
२१४. भाषण : मिदनापुरके छात्रोंके समक्ष[२]
७ जुलाई, १९२५
गांधीजी ने कहा कि समारोहके प्रारम्भमें छात्रों द्वारा मेरा स्वागत करनेसे मुझे प्रसन्नता हुई है। आगे बोलते हुए उन्होंने बताया कि मेरे वर्तमान दौरेका उद्देश्य देशबन्धु दासके उपदेशोंको कार्यरूप देना और उनके स्मारकके लिए चन्दा इकट्ठा करना है। देशबन्धुने अपना समस्त जीवन और सम्पत्ति युवकोंके कल्याणमें लगा दी थी। उनको युवकोंसे, विशेषकर छात्रोंसे, बहुत आशा थी और वे उनपर बहुत भरोसा रखते थे। महात्माजीने कहा कि इस यशस्वी देशभक्तके जीवनको बाह्य और आन्तरिक