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२१६. टिप्पणियाँ

दो कठिनाइयाँ

एक प्रसिद्ध व्यक्तिने एक मित्रकी मार्फत नीचे लिखे सवाल 'यंग इंडिया' में उनका जवाब देनेके लिए मेरे पास भेजे हैं:

१. आप मानते हैं कि अस्पृश्यता अकेले हिन्दू धर्मपर ही नहीं, सारी मनुष्य जातिपर एक धब्बा है। तब फिर आप उसके सुधारकोंका दायरा सिर्फ हिन्दुओं तक ही सीमित क्यों रखते हैं? हिन्दुओंकी तरह मुसलमान भी उसे सुधारनेमें हाथ क्यों न बँटायें?
२. आप मुतवातिर हिन्दू-मुस्लिम एकतापर जोर देते हैं। पर क्या आप मेहरबानी करके यह बतायेंगे कि आपने इस्लाम या मुसलमानोंके लिए प्रत्यक्ष काम क्या किया है?

पहले सवालके बारेमें तो मैं यह कहूँगा कि यद्यपि अस्पृश्यताका पाप अकेले हिन्दू समाजपर ही नहीं, सारी मनुष्य जातिपर कलंक है तो भी यह एक ऐसा सवाल है जिसे हिन्दू धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य सवालोंकी तरह खुद हिन्दुओंको ही हल करना चाहिए। मिसालके तौरपर देवदासियोंके सवालको ही लीजिए। यह प्रथा कोई ऐसी-वैसी बुराई नहीं है। यह भी मनुष्य जातिपर एक लांछन है। फिर भी कोई अहिन्दू इस बुराईको उस रूपमें दूर करनेका इरादा नहीं करता जिस रूपमें कि हिन्दू कर रहे हैं। कारण स्पष्ट है। इन बुराइयोंको भीतरी सुधारके द्वारा दूर किया जाना चाहिए——बाहरसे जबरदस्ती लाद कर नहीं। ऐसा केवल हिन्दू ही कर सकते हैं। हाँ, मुसलमान, ईसाई तथा अन्य अहिन्दू सज्जन हिन्दू धर्मकी अन्य बुराइयोंकी तरह उसपर भी टीका-टिप्पणी करना चाहें तो शौकसे करें। वे सुधारकोंको अपना नैतिक सहयोग भी दे सकते हैं। परन्तु यदि वे इससे आगे जाकर कुछ करना चाहेंगे तो उनके ऊपर हिन्दू धर्मके खिलाफ बुरे इरादे रखनेका इल्जाम लगाये जानेकी सम्भावना पैदा हो जायेगी।

जहाँतक इल्जामका सम्बन्ध है, मुझे सिर्फ उसका उल्लेख करके ही सब्र रखना होगा। अगर मैं इस दिशामें अपने किये गये कामोंको गिनाने लगूँ तो वह एक नामुनासिब बात होगी। यदि मुझे मुसलमानोंके सामने यह साबित करना पड़े कि मैंने एकताके लिए प्रत्यक्ष क्या-कुछ किया है तब तो यही प्रकट होगा कि मैंने कुछ नहीं किया है और इसलिए मुझे इस प्रश्नमें निहित निन्दाको तबतक शिरोधार्य ही करना होगा, जबतक मेरी नेकनीयती अपने आप साबित नहीं हो जाती। पर आम मुसलमानोंके साथ इन्साफ करते हुए मुझे इतना तो जरूर कह देना चाहिए कि यह पहला मौका है जब मुझसे अपनी सेवाका प्रमाणपत्र तलब किया गया है। फिर भी