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भाषण : फरीदपुरकी औद्योगिक प्रदर्शनीमें

से इस खद्दरके सन्देशके बारेमें कुछ-न-कुछ कहना है और इसलिए जबतक मैं जीवित हूँ, जबतक बंगाल मेरी बात सुनने के लिए तैयार और इच्छुक है, तबतक मैं अपनी सारी शक्ति लगाकर अपना सन्देश आपको बार-बार देते रहना चाहता हूँ। मैं कहता हूँ कि यदि आप अपने देशके लिए स्वतन्त्रता चाहते हैं तो आप और जो-कुछ चाहें करें, किन्तु कमसे-कम उसके लिए एक दृढ़ तथा स्थायी नींव तो डालें ही जिसपर कि आप उपयुक्त और दृढ़ ढाँचा खड़ा कर सकें। इस बूढ़े के शब्दोंको, जो आपसे कलकत्तामें बार-बार कह रहा. है और जो बंगालके इस दौरेमें बार-बार कहता रहेगा, याद रखें कि यदि आपने पक्की नींव नहीं डाली तो आपको मिलनेवाला कोई भी सुधार और स्वतन्त्रता जिसे आप तो मिली हुई समझेंगे, बालूकी दीवार ही साबित होगी; वह हवाके पहले झोंकेके साथ ही ढह जायेगी। इसीलिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप इस सन्देशपर, चरखे और खद्दरके सजीव सन्देशपर अमल करें। हिन्दुओ, आप इस अस्पृश्यताके अभिशापको दूर करें। हिन्दुओ और मुसलमानो, यदि यह आपके लिए सम्भव हो तो एक भी बूंद खून बहाये बिना आप एक हो जायें और भाईकी तरह एक-दूसरेको गले लगा लें।

आपने मेरा भाषण धैर्यसे सुना है। इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ।

[अंग्रेजीसे]

अमृतबाजार पत्रिका, २-५-१९२५

५. भाषण : फरीदपुरकी औद्योगिक प्रदर्शनीमें

फरीदपुर
 
२ मई, १९२५
 

प्रदर्शनीका उद्घाटन करते हुए, श्री गांधीने कहा कि किसानका पुत्र होनेके नाते मैं खेती-बाड़ीके बारेमें थोड़ा-बहुत जानता हूँ। मुझे भारत तथा दक्षिण आफ्रिकाके किसानोंके बारे में बहुत-कुछ जानकारी है। मैंने दक्षिण आफ्रिकामें अपने जीवनके २० से अधिक वर्ष बिताये हैं। मैं इन दोनों देशोंके कृषि-विभागोंका काम देख चुका हूँ। ये विभाग साधारण गरीब किसानोंको भी सहायता देने के लिए उत्सुक रहते थे। दुर्भाग्यसे इस दिशामें व्यावहारिक रूपसे कुछ भी नहीं किया गया है। यह कहा गया है कि भारतके किसान आलसी होते हैं। मैं इससे सहमत नहीं हूँ। मैं इस बातको अवश्य स्वीकार करता हूँ कि वे वास्तवमें सालमें छः महीने खाली बैठे रहते हैं। यह इसलिए नहीं कि वे आलसी है, बल्कि इसलिए कि उनके पास करनेको कोई काम नहीं रहता। वे इन महीनों में कताईका काम अच्छी तरहसे कर सकते हैं और अपनी स्थिति सुधार सकते हैं। मैं अपनी पूरी शक्तिके साथ घोषणा करनेके लिए तैयार हूँ कि भारतकी मुक्ति चरखमें ही है। इसके बारेमें कोई मतभेद हो ही नहीं सकता।

[अंग्रेजीसे]

अमृतबाजार पत्रिका, ३-५-१९२५