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दुःखद जानकारी

अंदाज करनेकी प्रवृत्तिके कारण इस पतनकारी व्यसनपर एक तरहके मिथ्या सम्मानका पर्दा पड़ गया है। यह मिथ्या सम्मान ही इस नैतिक कोढ़के लिए उत्तरदायी है और यह बात तो प्रत्येक व्यक्तिको आसानीसे समझमें आ सकती है। लेकिन मेरा पत्रलेखक जैसी भयंकर स्थिति बताता है, मैंने उसकी कल्पना नहीं की थी। मुझे लगता है कि उसने इस बुराईको बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताया है, क्योंकि मुझे अपने दौरेमें विभिन्न सूत्रोंसे इसके समर्थनमें प्रमाण मिले हैं। नास्तिकताके इस युगमें जहाँ लोगोंका ईश्वरमें विश्वास नहीं रह गया है या केवल कहने-मात्रका विश्वास रह गया है, और जिसमें सुखों और भोगोंकी बहुलता है, यह भयंकर बुराई हमें पतनकी याद दिलाती है जबकि वह लगभग चरम उत्कर्षपर था। अतः इसके निराकरणका उपाय बताना सुगम नहीं है। इसका निराकरण कानूनसे नहीं किया जा सकता। लन्दनमें यह बुराई बड़े जोरोंपर है। पैरिस इसके लिए बदनाम है और वहाँ तो उसने एक चलनका रूप ले लिया है। यदि कानूनसे इसका निराकरण किया जा सकता तो ये अत्यन्त संगठित राष्ट्र अपनी राजधानियोंको इस बुराईसे मुक्त कर लेते। मेरे जैसे सुधारक कितना ही क्यों न लिखें, इस खराबीमें कोई खास कमी नहीं हो सकती। हमारे ऊपर इंग्लैंडका राजनैतिक प्रभुत्व तो बुरा है ही। उसका सांस्कृतिक प्रभुत्व उससे भी बुरा है। क्योंकि एक ओर हम उसके राजनैतिक प्रभुत्वको नापसन्द करते हैं और इसलिए उसका विरोध करनेका प्रयत्न करते हैं; किन्तु दूसरी ओर हम उसके सांस्कृतिक प्रभुत्वसे चिपटे रहते हैं और मोहवश यह अनुभव नहीं करते कि जैसे ही हमपर उसका सांस्कृतिक प्रभुत्व पूरा-पूरा जमा, हमारे लिए उसके राजनैतिक प्रभुत्वका विरोध करना सम्भव ही नहीं होगा। मेरे इस कथनसे कोई इस गलतफहमीमें न पड़े कि अंग्रेजी राज्यसे पहले भारतमें वेश्यावृत्ति नहीं थी। फिर भी मैं इतना अवश्य कहता हूँ कि वह तब इतनी व्यापक नहीं थी, जितनी आज है। वह ज्यादासे-ज्यादा थोड़े-से राजा-रईसोंतक ही सीमित थी। अब तो इसके कारण देशके युवकोंका तेजीसे नाश हो रहा है। मैं इन्हीं युवकोंसे देशके लिए कुछ किये जानेकी आशा बाँधे हूँ। जो नव- युवक इस बुराईमें फँसे हैं, वे स्वभावतः बुरे नहीं हैं। वे मजबूर होकर और बिना विचारे उसमें जा फँसे हैं। इस दुष्कर्मसे इन युवकोंकी और समाजकी जो हानि हुई है, उन्हें इसका अनुभव करना चाहिए। उन्हें यह भी समझ लेना चाहिए कि इस भयंकर विनाशसे उनकी और देशकी रक्षा केवल कठोर संयम पालन द्वारा ही हो सकती है। वे जबतक ईश्वरका ध्यान नहीं करते और प्रलोभनसे बचनेमें उसकी सहायता नहीं माँगते, तबतक कोरा संयम, फिर चाहे उसका पालन कितनी ही कठोरतासे क्यों न किया जाये उनके लिए अधिक लाभप्रद नहीं होगा। 'गीता' में महर्षिने ठीक ही कहा है कि 'मनुष्य निराहार रहकर शरीरको संयममें रख सकता है, किन्तु फिर भी वासना बनी रहती है। वासनाका क्षय तो तभी होता है जब मनुष्य ईश्वरके प्रत्यक्ष दर्शन कर लेता है।'[१] प्रत्यक्ष दर्शन करनेका अर्थ है यह स्पष्ट अनुभूति कि वह हमारे

  1. विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
    रसवर्ज, रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते॥ भगवद्गीता २-५९।