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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हृदयोंमें आसीन है——वैसे ही जैसे बच्चेके हृदयमें मातृस्नेहकी अनुभूति होती है। इसके लिए बच्चोंको किसी प्रमाणकी जरूरत नहीं होती। माँके मनमें प्रेम है, क्या वह इसके सम्बन्धमें तर्क करता है? क्या वह उसे दूसरोंके सम्मुख सिद्ध कर सकता है? वहु तो गर्वपूर्वक कहता है : 'माँके मनमें प्रेम है।' ऐसा ही ईश्वरके अस्तित्वके सम्बन्धमें होना चाहिए। वह तर्कसे सिद्ध नहीं होता, बल्कि वह अनुभव किया जाता है। हमें तुलसीदास, चैतन्य, रामदास और अध्यात्मवादके अन्य असंख्य गुरुओंके अनुभवकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, जैसे कि हम अपने सांसारिक गुरुओंके अनुभवकी उपेक्षा नहीं करते।

पत्रलेखकने पूछा है कि कांग्रेसजन उसके द्वारा गिनाये हुए काम, जैसे नाट्यगृहमें जाना आदि कर सकते हैं या नहीं। मैं कह चुका हूँ कि मनुष्यको कानूनसे अच्छा नहीं बनाया जा सकता। यदि मुझमें लोगोंको समझाने-बुझानेकी शक्ति होती तो मैं कुख्यात स्त्रियोंको अभिनेत्रियोंका काम करनेसे अवश्य रोकता। मैं लोगोंको शराब पीने और तम्बाकू पीनेसे भी रोकता। जिन पतनकारी विज्ञापनोंसे प्रसिद्ध मासिक और दैनिक पत्रोंके भी पृष्ठ गन्दे बने रहते हैं मैं उन विज्ञापनोंको निश्चय ही रोकता और हमारे कुछ मासिक पत्रोंके पृष्ठ जिस अश्लील साहित्य और जिन अश्लील चित्रोंसे दूषित किये जाते हैं, मैं निश्चित रूपसे उन्हें भी रोकता। लेकिन अफसोस है कि मुझमें समझाने-बुझानेकी शक्ति नहीं है। यदि मुझमें वह शक्ति होती तो मुझे बहुत प्रसनता होती। लेकिन इन बातोंको राज्य या कांग्रेसके कानूनों द्वारा नियन्त्रित करना ऐसा उपाय होगा जो शायद स्वयं इस दोषसे भी अधिक सदोष होगा। आवश्यकता सज्ञान, विवेकयुक्त, स्वस्थ और शुद्ध लोकमत बनानेकी है। ऐसा कोई कानून नहीं है जो चौकोंको पाखानके रूपमें और बैठकोंको अस्तबलोंके रूपमें प्रयुक्त करनेसे रोकता हो। परन्तु लोकमत या लोकरुचि ऐसी व्यवस्थाको सहन नहीं करेगी। कभी-कभी लोकमतके विकासकी गति बड़ी मन्द होती है, लेकिन केवल वही एक-मात्र प्रभावकारी उपाय है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ९-७-१९२५