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२१८. त्यागका शास्त्र

कलकत्तेकी एक सभामें मैंने कहा था कि 'देशबन्धुने मुसलमानोंके सम्बन्धमें त्यागके शास्त्रको पराकाष्ठापर पहुँचा दिया है।' मेरे इस कथनपर आपत्ति उठाई गई है। इस आपत्तिका कारण यह है कि त्याग शब्दका आशय यह समझा गया कि देशबन्धुने मुसलमानोंपर ऐसा कोई अनुग्रह किया है, जिसके वे लोग अधिकारी नहीं थे । आक्षेपकर्त्ताओंने अपनी यह राय बना ली है कि हिन्दू लोग मुसलमानोंके साथ बहुत-कुछ वैसा ही बर्ताव करते हैं, जैसा कि अंग्रेज लोग हम सबके साथ करते हैं——अर्थात पहले तो हमसे सब-कुछ छीन लिया और अब उसे अनुग्रहके नामसे दानके रूपमें मुट्ठी दो मुट्ठी दे देते हैं।

मैंने उस दिन सभामें जो कहा था वह मुझे मालूम है। मैंने अपने उस भाषणकी रिपोर्ट नहीं पढ़ी है, तो भी उस सभामें मैंने जो-कुछ कहा, उसपर मैं कायम हूँ। मैं बिना किसी झिझकके कहता हूँ कि सिवा पारस्परिक त्यागके इस दुखी देशके उद्धारकी कोई आशा नहीं। हमें तुनकमिजाज नहीं बनना चाहिए और सूझ-बूझको एकदम तिलांजलि नहीं दे देनी चाहिए। किसीके लिए त्याग करनेका अर्थ उसपर अनुग्रह करना नहीं है। प्रेम-प्रदत्त न्यायका नाम त्याग और नियम-प्रदत्त न्यायका नाम दण्ड है। प्रेमीकी दी हुई वस्तु न्यायकी मर्यादासे बहुत आगे जाकर भी हमेशा जितना वह देना चाहता है, उससे कम होती है; क्योंकि वह और अधिक देनेके लिए उत्सुक रहता है। और उसे इस बातका अफसोस होता रहता है कि उसके पास देनेको और कुछ नहीं बचा। यह कहना कि हिन्दू लोग अंग्रेजोंकी तरह पेश आते हैं, उनको बदनाम करना है। हिन्दू यदि चाहें भी तो ऐसा नहीं कर सकते और मैं कहता हूँ, खिदर-पुरके मजदूरोंकी पशुताके बावजूद, हिन्दू और मुसलमान, दोनों एक ही नावमें बैठे हुए हैं। दोनोंकी अधोगति हो रही है। असलमें उनकी हालत प्रेमियों-जैसी है——उन्हें उस हालतमें आना होगा——वे चाहें या न चाहें। इसलिए मुसलमानोंके प्रति हरएक हिन्दूका और हिन्दुओंके प्रति मुसलमानका व्यवहार सिर्फ न्यायकी भावनासे ही नहीं बल्कि समर्पण और त्यागकी भावनासे प्रेरित होना चाहिए। वे दोनों एक-दूसरेके प्रति किये गये अपने-अपने कार्योंका बावनतोला पाव रत्ती हिसाब रखकर दूसरेसे उदारताकी अपेक्षा नहीं रख सकते। उन्हें हमेशा परस्पर सदा एक दूसरेका ऋणी समझकर चलना होगा। कानूनी इन्साफके नाते कोई भी मुसलमान मेरी आँखोंके सामने रोजाना गोवध कर सकता है। किन्तु मेरे साथ उसका जो प्रेम है वह उसे ऐसा नहीं करने देता——यहाँतक कि वह अपने हकका खयाल छोड़कर मेरी मुहब्बत की खातिर कभी-कभी गोमांस खानेसे बाज आता है और फिर भी समझता है कि उसने सिर्फ वही किया है जो कि उसे करना चाहिए था। कानूनी इन्साफ तो मुझे इस बातकी इजाजत देता है कि मैं जाकर मुहम्मद अलीके कानोंके पास, जब वे नमाज पढ़ रहे हों, बाजे बजाऊँ या राग अलापूँ; पर मैं अपने हकका खयाल Gandhi Heritage Porta