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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

छोड़कर उनके जजबातका खयाल करता हूँ, वहाँ किसीके साथ जोरसे बातचीत करनेके बजाय बहुत ही धीमे स्वरमें बोलता हूँ और फिर भी समझता हूँ कि यह मैंने मौलाना साहबपर कोई मेहरबानी नहीं की। बल्कि इसके विपरीत यदि मैं ठीक उसी वक्त जब वे नमाज पढ़ रहे हों अपने घंटा घड़ियाल बजानेके कानूनी हकका प्रयोग करूँ, तो मैं एक नागवार शख्स माना जाऊँगा। यदि देशबन्धुने कुछ ही पद मुसलमानोंसे न भरे होते तो भी कानूनी इन्साफकी अपेक्षा पूरी हो जाती; पर उन्होंने अपने हकोंकी सीमासे आगे बढ़कर मुसलमानोंकी इच्छाका विचार किया और उनकी भावनाको तुष्ट किया। मुसलमानोंको प्रसन्न करनेका जो कोमलभाव देशबन्धुके दिलमें था, वही उनकी मृत्युको जल्दी ले आनेका कारण बना। मैं जानता हूँ कि जब उन्होंने देखा कि कानूनी न्याय उन्हें अनधिकृत जमीनपर गाड़े गये मुर्दोंको कब्रोंसे बाहर निकालनेके लिए मजबूर कर रहा है, तब उनके दिलको कितना भारी धक्का लगा था। वे मुसलमानोंके भावोंको जरा भी धक्का नहीं लगने देना चाहते थे——फिर उनकी भावना अनुचित ही क्यों न हो। ऐसा करना पद्धति छोड़कर चलना था——अपनी पद्धति नहीं, दुनियाकी पद्धति। फिर उन्होंने कभी खयाल न किया कि मुसलमानोंके भावोंका इतनी सूक्ष्मताके साथ विचार करके वे उनके साथ कोई मेहरबानी या उनपर कोई एहसान कर रहे हैं। प्रेम कभी कुछ माँगता नहीं है, वह तो हमेशा देता ही है। वह सदा सहता है——क्रोध नहीं करता, बदला नहीं लेता।

इसलिए न्याय, निरे न्यायकी यह दुहाई विचारहीन क्रोध और अज्ञानसे भरा मानसिक विस्फोट ही है——फिर वह दुहाई चाहे हिन्दुओंकी तरफसे दी जा रही हो, चाहे मुसलमानोंकी तरफसे। जबतक हिन्दू और मुसलमान कोरे इन्साफके राग अलापते रहेंगे तबतक वे एक-दूसरेके नजदीक नहीं आ सकते। न्यायकी——कोरे न्यायकी सर्वोपरि उक्ति तो है 'जिसकी लाठी उसकी भैंस'। जो चीज अंग्रेज हासिल कर चुके हैं, उसका वे तिल-भर भी क्यों छोड़ने चले? और हिन्दुस्तानी लोग राज्यकी बागडोर अपने हाथमें आ जानेपर अंग्रेजोंसे वे तमाम चीजें क्यों न छीनें, जिनसे उनके बाप-दादोंने इन्हें वंचित किया था? फिर भी जब हम आपसमें निपटारा करने बैठेंगे,——और किसी दिन हमें बैठना ही होगा,——तो हम इस तथाकथित न्यायकी तुलापर नाप-जोख न करेंगे। बल्कि हमें उस समय 'त्याग' के उस विचलित कर देनेवाले रूपसे, जिसे दूसरे शब्दोंमें प्रेम, सौहार्द या भ्रातृभाव कहते हैं, काम लेना होगा। और यही बात हम हिन्दुओं और मुसलमानोंको, एक-दूसरेके सिर काफी फोड़ चुकने, निर्दोषोंका मनों खून बहा चुकने और अपनी बेवकूफीको समझ चुकनेके बाद करनी पड़ेगी। तब हमारी आँखें खुल जायेंगी और हम समझेंगे कि मित्रता न बदला लेती है और न न्याय-न्यायकी पुकार करती है; उसकी विधि तो त्याग केवल त्याग ही है। तब हिन्दू गोवधको अपनी आँखोंके सामने देखकर कुछ न कहेंगे; और मुसलमान भी मानेंगे कि हिन्दुओंका दिल दुखानेके लिए गोरक्षा करना इस्लामकी धर्माज्ञाओंके खिलाफ है। जब वह सुदिन आयेगा तब दोनों एक-दूसरेके गुण ही देखेंगे। एक-दूसरेके दोष हमारी दृष्टिमें बाधक न होंगे। वह दिन बहुत दूर भी हो सकता है और बहुत नज-