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एक खामोश समाजसेवी

दीक भी। पर मेरा दिल तो कहता है कि वह जल्दी ही आ रहा है। मैं तो सिर्फ उसी उद्देश्यपूर्तिके लिए काम करूँगा, दूसरेके लिए नहीं।

हाँ सावधानीके तौरपर, यह कह देना अनुचित न होगा कि मेरे त्यागका अर्थ सिद्धान्तका त्याग नहीं है। मैंने इस बातको उसी सभामें साफ कर दिया था और फिर यहाँ उसी बातको जोर देकर कह रहा हूँ। पर हम आज जिस बातके लिए लड़ रहे हैं वह सिद्धान्त किसी हालतमें नहीं है, वह मिथ्याभिमान और पूर्वसंचित द्वेषभाव है। हम गुड़ तो खाते हैं पर गुलगुलोंसे परहेज करते हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ९-७-१९२५
 

२१९. एक खामोश समाजसेवी

गत ३० जूनको आचार्य सुशील [कुमार] रुद्रका देहान्त हो गया। वे मेरे एक आदरणीय मित्र और खामोश समाजसेवी थे। उनकी मृत्युसे मुझे दुःख हुआ है। मैं चाहता हूँ कि पाठक भी इसमें मेरा साथ दें। भारतकी मुख्य बीमारी है उसकी राजनीतिक गुलामी। इसलिए वह उन्हींको जानता है जो इस गुलामीको दूर करनेके लिए उस नौकरशाहीसे खुलेआम संघर्ष करनेको आगे आते हैं, जिसने उसके विरुद्ध अपनी जल और थलकी सेना तथा धन-बल और कूटनीतिकी अपनी तिहरी मोर्चाबन्दी कर रखी है। इससे स्वभावतः उसे उन कार्यकर्त्ताओंका पता नहीं रहता, जो जीवनके अन्य कार्यक्षेत्रोंमें निःस्वार्थ भावसे काम करते हुए अपनेको गला देते हैं और जो केवल राजनीतिक क्षेत्रमें काम करनेवालोंसे कम उपयोगी नहीं होते। सेंट स्टीफेन्स कालेज, दिल्लीके भूतपूर्व प्रधानाचार्य सुशील कुमार रुद्र ऐसे ही विनम्र कार्यकर्त्ता थे। वे उच्चकोटिके शिक्षाशास्त्री थे। प्रधानाचार्यकी हैसियतसे सर्वत्र लोकप्रिय हो गये थे। उनके और उनके विद्यार्थियोंके बीच एक प्रकारका आध्यात्मिक सम्बन्ध था। यद्यपि वे ईसाई थे, तथापि उनके हृदयमें हिन्दू धर्म और इस्लामके लिए भी जगह थी। इन धर्मोको वे बड़े आदरकी दृष्टिसे देखते थे। उनका ईसाई धर्म उन्हें यह नहीं सिखाता था कि वही एक धर्म है और अकेले ईसा मसीह ही जगतके तारनहार हैं तथा जो व्यक्ति इसे न मानता हो वह नरकगामी होगा। अपने धर्मके गौरवपर दृढ़ रहते हुए भी, वे अन्य मजहबोंको सहन करते थे। वे राजनीतिका अध्ययन बड़े चाव और ध्यानसे करते थे। गरमदलीय कहे जानेवाले लोगोंके प्रति जहाँ वे अपनी सहानुभूति का प्रदर्शन नहीं करते थे वहाँ वे उसे छिपाते भी न थे। जबसे——१९१५ से——मैं आफ्रिकासे भारत लौटा, मैं जब कभी दिल्ली जाता, उन्हींका अतिथि बनता था। रौलट कानूनके सिलसिलेमें जबतक मैंने सत्याग्रह नहीं छेड़ा था, तबतक सब बदस्तूर चलता रहा। ऊँचे हलकोंमें उनके कितने ही अंग्रेज मित्र थे। उनका सम्बन्ध एक खालिश अंग्रेज मिशनसे था। अपने कालेजके वे पहले ही हिन्दुस्तानी प्रधानाचार्य थे। इसलिए मैंने अपने मनमें सोचा कि उनके साथ