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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरे घनिष्ठ सम्बन्ध जारी रखन और उनके घरमें मेरे ठहरनेसे कहीं उनका सर नीचा हो जाये और उनके कालेजको अनावश्यक संकटका सामना न करना पड़े। इसलिए मैंने दूसरी जगह ठहरनेकी इच्छा प्रकट की। उनका जवाब अपने ढंगका निराला ही था——'लोग जितना सोचते हैं, मेरा मजहब उससे कहीं गहरा है। मेरे कुछ मत तो मेरे जीवनके घनिष्ठ अंग हैं। वे गहरे और दीर्घकालके मनन और प्रार्थनाके बाद स्थिर किये गये हैं। मेरे अंग्रेज मित्र उन्हें जानते हैं। यदि अपने सम्माननीय मित्र और अतिथिके रूपमें मैं आपको अपने घरमें ठहराऊँ तो वे इसका गलत अर्थ कदापि नहीं लगा सकते। और यदि कभी मुझे इन दो बातोंमें से कि अंग्रेजोंके अन्दर जो-कुछ भी मेरा प्रभाव है वह चला जाये या आप मेरे न रहें किसी एक को चुनना पड़े तो मैं जानता हूँ कि मैं किसे पसन्द करूँगा। आप मुझे नहीं छोड़ सकते।' तब मैंने पूछा, 'लेकिन मुझसे तो हर किस्मके लोग मिलनेके लिए आते हैं; यह भी तो सोचिए। जब मैं दिल्लीमें आया हुआ होऊँ तब आप अपने मकानको सराय कदापि नहीं बना सकते।' उन्होंने उत्तर दिया, 'सच पूछें तो मुझे यह सब पसन्द है। आपके पास जो मित्र आते हैं, मैं उन्हें पसन्द करता हूँ। यह देखकर मुझे आनन्द होता है कि आपको अपने मकानमें ठहरानेके बहाने मेरे हाथों कुछ देशसेवा हो रही है।' पाठक शायद न जानते होंगे कि खिलाफतके दावेको साकार रूप देनेके लिए जो पत्र[१] मैंने वाइसरायको लिखा था उसका विचार और मसविदा प्रधानाचार्य रुद्रके मकानमें ही तैयार हुआ था। वे तथा चार्ली एन्ड्र्यूज उस मसविदेमें सुधार सुझानेवाले व्यक्ति थे। उन्हींके घर आतिथ्यमय वातावरणमें बैठकर असहयोग आन्दोलनकी कल्पना की गई थी, उसे रूपबद्ध किया गया था। मौलानाओं, दूसरे मुसलमानों और अन्य मित्रों तथा मेरे बीच जो खानगी सलाह-मशविरा हुआ करता था, उसकी कार्रवाईको वे बड़ी दिलचस्पी परन्तु खामोशीके साथ देखते रहते थे। उनके तमाम कार्य धर्म भावसे ही प्रेरित होते थे। ऐसी हालतमें उन्हें ऐहिक सत्तासे भयभीत होनेका कोई कारण न था——धर्मभाव तो सांसारिक सत्ताके अस्तित्व और उपयोग तथा मित्रता की कद्र करनेमें उनका मददगार होता था। उन्होंने अपने जीवनमें यह बात चरितार्थ कर दिखायी थी कि धर्म-ज्ञानसे संतुलित और सही विवेक उत्पन्न होता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्यके विश्वास और धर्मके बीच सुन्दर सामञ्जस्य स्थापित होता है। आचार्य रुद्रने अपनी ओर अत्यन्त उच्च चरित्रवाले लोगोंको आकर्षित कर रखा था। बहुतोंको इस बातका पता भी नहीं होगा कि श्री सी॰ एफ॰ एन्ड्र्यूज हमें आचार्य रुद्रकी बदौलत ही प्राप्त हुए हैं। वे जुड़वाँ भाई जैसे थे। उनका पारस्परिक स्नेह यह बताता था कि आदर्श मैत्री क्या वस्तु है। आचार्य रुद्र अपने पीछे दो लड़के और एक लड़की छोड़ गये हैं। वे वयस्क हैं और अपना काम-काज सम्हाले हुए हैं। वे जानते हैं कि उनके शोकमें उनके उच्च हृदय पिताके कितने ही मित्र और प्रसशंसक उनके साथ हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ९-७-१९२५
 
  1. देखिए खण्ड १७, पृष्ठ ५४६-४९।