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२२०. सुलहका अवसर[१]

फरीदपुरके सन्देशका जैसा आशय श्री चटर्जीने समझा है, वैसा मैं नहीं समझता। देशबन्धुने अपनी स्थितिको यहाँतक साफ कर दिया था कि वे पूर्ण उत्तरदायी स्वराज्यके लिए १९२९ तक रुकनेको तैयार हैं; पर शर्त यह है कि सरकार एक सम्मानपूर्ण समझौता करनेका प्रस्ताव करे, जिससे कि जनता के प्रतिनिधि सरकार द्वारा प्रस्तुत योजना कार्यान्वित कर सकें। वे शर्तें क्या हों, इसका निर्णय किसी गोलमेज सम्मेलनमें सब लोग बैठकर सुहृद्-भावसे चर्चा करके तय करें। देशबन्धुके लिए यह असम्भव था कि वे पहले ही से, बिना ठीक-ठीक जाने कि मुडीमैन समितिके अल्पमतवालोंकी सिफारिशें क्या हैं, उन्हें मंजूर कर लेते। मेरी खुदकी स्थिति तो बिलकुल सीधी-सादी है। सुधारोंमें मेरी दिलचस्पी मेरे अधिकृत प्रतिनिधियों अर्थात् स्वराज्यवादियों——के द्वारा ही है। उन्होंने इस विषयमें विशेषज्ञता प्राप्त की है और वे इसमें जो भी करेंगे वह मुझे मंजूर होगा। फिलहाल तो मैं ब्रिटिश सरकारके सामने सिवा अपनी कमजोरीके और कुछ पेश नहीं कर सकता। अपनी इस कमजोरीकी हालतमें तो मैं इस बातका इन्तजार-भर कर सकता हूँ कि इंग्लैंड सच्चे दिलसे मैत्रीका हाथ बढ़ाये। जब वह ऐसा करेगा तब मैं अपनी तरफसे बिना शर्त लड़ाई खत्म कर दूँगा। पर इस कमजोरीकी हालतमें भी मैं अपने अन्दर यह समझनेकी शक्ति अवश्य पाता हूँ कि हमारे लिए क्या जीवनदायी है और क्या नहीं, और मुझमें इतनी शक्ति भी है कि यदि जीवनदायक प्रस्तावके स्थानपर उससे विपरीत कोई चीज सामने रखी जाये तो मैं उसे अस्वीकृत कर दूँ। मैं अपनेको धोखा नहीं दे सकता। मैं तबतक किसी ठोस वस्तुकी उम्मीद नहीं कर सकता जबतक मेरा निर्धन देश शक्तिशाली नहीं बन जाता। इसलिए मुझे तो शक्तिसंचय करना होगा। और चूँकि मैंने अपने साधनोंमें हिंसाको स्थान नहीं दिया है, मेरा दारोमदार चरखेपर या उसी-जैसी अन्य वस्तुपर अथवा देशबन्धुके अधिक व्यापक शब्दोंमें कहें तो देहातके पुनरुत्थानपर है तथा यदि आवश्यक हो तो सविनय अवज्ञापर है।

जहाँतक देशके विभिन्न दलोंको एकताका सवाल है, मुझे डर है कि स्वराज्यवादियों और नरमदलवालोंके मतभेद कुछ बातोंमें बुनियादी हैं। कुछ बेहतर स्थितियोंमें सुधारोंको स्वीकृत कर लेने-मात्रसे मतभेद मिट जाना लाजिमी नहीं है। यदि मैं इस भेदको अपनी धारणाके अनुसार एक वाक्यमें कहूँ तो वह यह है——यदि सरकार लोगोंकी न्यायोचित माँगको स्वीकार न करे तो स्वराज्यवादी एक नियत समयके बाद उसपर प्रहार करनेकी बात सोचते हैं और नरमदलीय लोग सरकारको अपने तकों द्वारा राजी करके जो-कुछ मिल सके वही हथियानेकी। इसलिए नरमदलके लोग

  1. श्री बी॰ सी॰ चटर्जीने गांधीजीको ३ जुलाई, १९२५ को एक पत्र लिखा था। यह उसीके उत्तरमें है । पत्रके लिये देखिए परिशिष्ट २।