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पत्र : वसुमती पण्डितको
उक्त बातें थोड़े हेरफेरसे ईसाई भारतीयोंपर भी लागू होती हैं; जिनका भारतके जातीय समुदायमें तीसरा महत्त्वपूर्ण स्थान है। कदाचित् भारतमें या अन्यत्र किसी भी धार्मिक समुदायमें एक ही प्रजाति नहीं है। निश्चय ही हिन्दू भी एक प्रजातिके लोग नहीं हैं। तब किसी एक समुदायको एक प्रजाति क्यों कहना चाहिए? हमारे ईसाई भाइयोंको भी अपने देशकी राजनीतिमें अपने-आपको ईसाई भारतीय मानकर चलना चाहिए, जैसा कि मिस्र, फिलिस्तीन, चीन, जापान और फिलिपाइनमें उनके धर्मबन्धु कर रहे हैं।

पत्रलेखकका पक्ष इतिहासकी दृष्टिसे ठीक है। जो शब्द किसी विशेष अर्थमें चल पड़े हैं, उनके प्रयोगकी आदत छोड़ना कठिन है। "दो समुदाय" शब्दोंपर भी यही आपत्ति की जा सकती है। मैं केवल यही वचन दे सकता हूँ कि भविष्यमें सावधानी बरतूँगा। सावधान पत्रलेखक 'यंग इंडिया' की भाषाको तथ्योंके अनुकूल रूप देनेके प्रयत्नमें इसी प्रकार सदैव सतर्क रहें।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ९-७-१९२५
 

२२२. पत्र : वसुमती पण्डितको

[कलकत्ता]
[९ जुलाई, १९२५]

चि॰ वसुमती,

मुझे तुम्हारा पत्र मिल गया। क्या लिखूँ, कुछ सूझता नहीं; तुम्हारे इन शब्दोंका अर्थ यह तो नहीं है कि तुम चिन्तामें डूबी हो; यदि ऐसा हो तो तुम चिन्ता करना छोड़ दो। चिन्ताका तो कोई कारण है ही नहीं। धन जानेसे तो क्षोभ होना ही नहीं चाहिए। यदि कोई दूसरा कारण हो तो मुझे लिखना। आश्रममें जाते हुए तुम्हें क्षोभ तो कदापि नहीं होना चाहिए।

बापूके आशीर्वाद

[पुनश्च :] मेरा कार्यक्रम तो अनिश्चित है। यह पूरा मास तो यहीं जायेगा।

गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ ९२१६) की फोटो-नकलसे।