पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 27.pdf/४०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

२२४. दार्जिलिंगके संस्मरण

[१० जुलाई, १९२५]

मैंने पाठकोंसे एक तरहसे वादा ही किया था कि जो पाँच दिन मैंने देशबन्धुके साथ दार्जिलिंगमें बिताये हैं उनका पवित्र संस्मरण उपस्थित करूँगा। मैं कह चुका हूँ कि वे मेरे जीवनके अत्यन्त मूल्यवान् संस्मरणोंमें से हैं। ज्यों-ज्यों समय बीतता है त्यों-त्यों उनका मूल्य और भी बढ़ता जाता है। इसका कारण भी मुझे पाठकोंको बता देना चाहिए। यद्यपि मैं देशबन्धुके घर इससे पहले भी रह चुका था, तथापि हमारी वह भेंट बिलकुल राजनैतिक थी। हम दोनों अपने-अपने अंगीकृत कार्योंमें बहुत व्यस्त थे। परन्तु दार्जिलिंगमें बात दूसरी थी। वहाँ देशबन्धु पूरी तरह मेरे थे। वे वहाँ आराम के लिए गये थे, परन्तु मैं तो उनके साथ केवल हृदय खोलकर बातें करनेके लिए ही गया था। आरामके लिए मेरा दार्जिलिंग जाना तो इसका एक बहाना भर था। यदि देशबन्धु वहाँ न होते तो मैं हिमाच्छादित धवलागिरिका आकर्षण होते हुए भी वहाँ न जाता। उन दिनों मुझे वे पेंसिलसे पचियाँ लिखकर भेज देते थे। एक बार एक पर्चीमें उन्होंने यह लिखा, 'याद रखिए, आप मेरे अधिकार-क्षेत्रमें हैं। मैं स्वागत-समितिका अध्यक्ष हूँ। आपको अपने दौरेमें दार्जिलिंग भी रखना है। यह आदेश है।' अच्छा होता, मैं उनकी इन प्यारी चिटोंको सँभाल कर रख लेता; परन्तु अफसोस! उनकी हालत भी मेरे अन्य ऐसे सैकड़ों कागजों-जैसी ही हुई। मैंने कठिनाई बताई कि मुझे कार्यसमितिके सब सदस्योंको लाना पड़ेगा। उन्होंने तारसे उत्तर दिया 'तब समितिके सब सदस्योंको ही ले आयें। मैं उनके रहनेका प्रबन्ध कर दूँगा। बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी सदस्योंके आने-जानेका खर्च देगी। मैं सतकौड़ीको तारसे यह निर्देश दे रहा हूँ।' मैं कार्यसमितिके सदस्योंको दार्जिलिंग नहीं ले जा सकता था, परन्तु मैंने यह वादा कर दिया कि समितिको बैठकके बाद जितना जल्दी हो सकेगा, आऊँगा। तदनुसार मैं वहाँ गया। मैं उनके पास सिर्फ दो दिनके लिए गया था। किन्तु उन्होंने मुझे पाँच दिन वहाँ रोका। उन्होंने बासन्ती देवीसे श्री फूकनको कहला दिया कि वे असमका दौरा तीन दिनके लिए और मुल्तवी रखें तथा मेरा बंगालका दौरा तीन दिनके लिए खुद मुल्तवी कर दिया। मैं इन सब बातोंका जिक्र यह दिखलाने के लिए कर रहा हूँ कि हम दोनों एक-दूसरेके साथ रहनेके लिए कितने उत्सुक थे। और अब जो घटना हुई है, उससे जान पड़ता है कि देशबन्धुकी दिन-दिन समीप आती हुई दीर्घ निद्रा मानो हमारे इस घनिष्ठ मिलनकी भूमिका ही थी।

वे रोगशय्यापर न थे बल्कि स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। उनकी सार-सँभाल रखनेकी बहुत आवश्यकता थी। परन्तु वे मेरे तथा मेरे साथियोंके आरामकी छोटीसे-छोटी बातपर स्वयं ही ध्यान देते थे। उन्होंने व्यवस्था अवश्य ही बहुत बड़े पैमानेपर की थी। उन्होंने नीचे मैदानसे पाँच बकरियाँ मँगवाई थीं। उन्होंने कभी एक भी जून

२७–२४