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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

न होगा। यदि उनका वक्तव्य सन्तोषजनक न हुआ तो उस समय सब दलोंका सम्मेलन करना और सबकी एक ही कार्य-योजना निश्चित करना ठीक होगा। मुझे प्रस्तावित सम्मेलन न करनेका यह एक नवीन कारण मालूम हुआ। इसलिए मैंने उनसे कहा, 'जबतक आप या मोतीलालजी न चाहेंगे और सब दलोंके प्रतिनिधियोंकी ओरसे उसकी माँग न की जायेगी तबतक मैं सम्मेलन नहीं बुलाऊँगा। परन्तु मुझे यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि मुझे वैसा विश्वास नहीं, जैसा आपको है। आप हिन्दू-मुसलमानोंके मतभदोंको देखें; वे बढ़ते ही जा रहे हैं। आप ब्राह्मणों और अब्राह्मणोंके झगड़ोंका खयाल करें। बंगालमें राजनैतिक दलोंको देखें। यह साफ जाहिर हो रहा हैं कि हम आज जितने कमजोर हैं उतने कमजोर कभी न थे। और क्या आप मेरी इस बातसे सहमत नहीं हैं कि अंग्रेजोंने कमजोरोंको कभी कुछ नहीं दिया है? मैं समझता हूँ कि हम इंग्लैंडसे किसी बड़ी चीजकी उम्मीद तभी कर सकते हैं जब हम इतनी शक्ति प्राप्त कर लें कि किसीके रोके रुक न सकें। देशबन्धु आतुरतासे बोले, 'आप तो तार्किककी तरह बात कर रहे हैं। मैं आपसे वह कह रहा हूँ जो मेरा दिल कहता है। मेरे दिलमें यह प्रेरणा हो रही है कि हमें कोई बड़ी चीज मिलनेवाली है।' इसपर मैंने आगे बहस नहीं चलाई। मैंने ऐसी बलवती श्रद्धाके सामने सिर झुका दिया। मैंने उनसे कहा कि अंग्रेजोंके चरित्रके प्रति मेरे मनमें बहुत आदरभाव है और उनमें मेरे कुछ ऐसे मित्र हैं जिनका मूल्य और महत्त्व आँकना असम्भव है। परन्तु मैंने देखा कि अंग्रेजोंपर उनकी श्रद्धा मुझसे भी अधिक थी। अंग्रेजोंको जानना चाहिए कि उन्होंने देशबन्धुके निधनसे अपना कितना महान् मित्र खो दिया है।

कलकत्ताके पीरके मामलेसे उन्हें बहुत ज्यादा परेशानी थी। उनकी तीव्र इच्छा थी कि मैं उसके निबटारेके लिए जो-कुछ कर सकूँ, अवश्य करूँ। उन्होंने कहा, 'मैं चाहता हूँ कि मुसलमानोंकी भावनाका ध्यान रखकर उन्हें खुश रखा जाये। आशा थी कि कब्र-के गिर्द दीवार बना देनेसे इसे लेकर चलनेवाली बातें खत्म हो जायेंगी। किन्तु चूँकि कब्रको खोदनेके बारेमें तीव्र आन्दोलन किया जा रहा है, मैं आड़े नहीं आ सकता। स्पष्ट ही कानून अनधिकृत भूमिमें मुर्दे गाड़नेके खिलाफ जान पड़ता है। इसके लिए अनुमति देनेका अधिकार न सुभाषको था और न सुहरावर्दीको। फिर भी मैं जो-कुछ करूँगा उसमें मुझे मुसलमानोंकी रजामन्दी तो चाहिए ही। मैं उन्हें इस बातपर राजी करनेका प्रयत्न कर रहा हूँ कि वे खुद उस शवको वहाँसे हटा लें। मुझे पूरी आशा है कि वें मेरी बातको अवश्य मान लेंगे।'

हमने तारकेश्वरके मामलेपर भी चर्चा की। फलतः हमने एक वक्तव्य[१] तैयार किया और तय हुआ कि आवश्यकता हो तो उसपर हम दोनों हस्ताक्षर करें। हमारी बातचीत डा॰ बेसेंटके घोषणापत्रपर भी हुई। चूँकि उन्होंने उसका उत्तर जल्दी देनेका वचन दिया था, इसलिए उसपर अन्य बातोंसे पहले विचार करना जरूरी था। हमारी बातचीतका परिणाम यह हुआ कि डा॰ बेसेंटको पत्र लिख दिया गया।[२]

  1. देखिए "सत्याग्रहियोंका कर्त्तव्य", २५-६-१९२५।
  2. देखिए "एनी बेसेंटको लिखे पत्रका मसविदा", ४-६-१९२५।