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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बिना हिंसाके प्राप्त किया जा सकता है। मैंने देशके उद्वारके लए अहिंसाको आपके समान ही अन्तिम रूपसे अपना धर्म बना लिया है। अहिंसाके बिना सविनय अवज्ञा नहीं की जा सकती। और सविनय अवज्ञाकी शक्तिके बिना स्वराज्य नहीं मिल सकता। सच पूछा जाये तो हमें सविनय अवज्ञा करनेकी आवश्यकता ही नहीं होगी, परन्तु हममें उसकी क्षमता अवश्य आ जानी चाहिए। मुझे अपने अधीर नौजवानोंके लिए काम जरूर खोजना चाहिए। मैं आपकी इस बातसे सहमत हूँ कि यदि हम सावधान न रहेंगे तो हमारे कार्यकर्त्ता-वर्गमें भ्रष्टाचार फैलनेका खतरा है। मैंने अपने गुरुसे[१] तमाम कार्योंमें सत्यके पालनका मूल्य सीख लिया है। आप कमसे-कम कुछ दिन उनके साथ रहें तो अच्छा। आपकी और मेरी आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न हैं। परन्तु उन्होंने मुझे वह बल प्रदान किया है जो मुझमें पहले न था। मैं पहले जिन बातोंको अस्पष्ट रूपसे देखता था, वे अब मुझे साफ-साफ दिखाई देती हैं।'

पर मैं अब इस बातचीतका अधिक विवरण नहीं दे सकता। मैं पाठकोंसे सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ कि वह बातचीत अन्तमें आध्यात्मिक चर्चामें अथवा प्रवचनमें परिणत हो गई है। उन्होंने तो इन बातोंकी अनन्त धारा ही बहा दी थी कि वे आजकल क्या कर रहे हैं और सशक्त हो जानेके बाद क्या करना चाहते हैं। उनके उस प्रवचनमें मुझे उनकी गम्भीर आध्यात्मिक प्रकृतिके दर्शन हुए। मुझे उनकी इस प्रकृतिके बारेमें अबतक कुछ मालूम नहीं था। मुझे पता नहीं था कि उनमें भी यह धुन उतनी ही प्रबल है जितनी अन्य अनेक प्रख्यात बंगालियोंमें है। अबसे कोई चार साल पहले उन्होंने मुझे गंगाके किनारे एक कुटी बनाकर रहनेकी बात कही थी। उन्होंने वह बात बादमें सैसून अस्पतालमें भी दुहराई थी। मैं उनकी इस बातपर मन-ही-मन हँसा था और मैंने उनसे दिल्लगीमें कहा था कि जब आप कुटी बना लेंगे तब उसमें मेरा भी हिस्सा अवश्य रहेगा। परन्तु मैंने दार्जिलिंगमें अपनी यह भूल समझी। उनमें कुटीकी इच्छा जितनी प्रबल थी उनका उतना लगाव राजनीतिसे न था। वे राजनीतिमें तो परिस्थितिसे मजबूर होकर ही पड़े थे।

पाठकोंको यह सोचनेकी जरूरत नहीं है कि हमारी बातचीत जिन विषयोंपर हुई थी वे सब समाप्त हो चुके हैं। मैंने तो याददाश्तसे खास-खास बातें लिखनेकी ही कोशिश की है। उन्होंने कुछ यूरोपियों और भारतीयोंका चरित्र-चित्रण भी किया था; मैंने वह छोड़ दिया है।

हम मुख्यतः चरखेके सम्बन्धमें नित्य बातचीत करते थे और नियमसे नित्य चरखा भी चलाते थे। वह पूरा घर एक कताई-घर बन गया था। महादेव, सतीश बाबू और मैं कुशल कताई शिक्षकका काम करते थे। हम सभी देशबन्धुको कातना सिखाते। उन्होंने पटनामें मन लगा कर कताई सीखना शुरू कर दिया था। उन्होंने राजेन्द्र बाबूसे कहा था कि कोई कताई शिक्षक दें। किन्तु वे तब बीमार होनेके कारण उसमें अधिक प्रगति नहीं कर सके थे। दार्जिलिंगमें उन्हें अधिक प्रगति करनेकी आशा थी। वे कहते थे कि मेरे बाँयें कन्धेमें दर्द है; किन्तु जब यह चला जायेगा तब मैं अधिक

  1. राधास्वामी सम्प्रदायके। देखिए "कुछ संस्मरण", २८-६-१९२५।