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दार्जिलिंगके संस्मरण

कताई करूँगा। किन्तु मैं अपने हाथोंसे काम करनेमें बहुत कच्चा हूँ। मेरी पत्नीसे पूछें कि मैं इस बारेमें कितना लाचार हूँ। बासन्ती देवीने कहा, 'वे ठीक ही कहते हैं। वे अपनी सन्दूकका ताला खोलते हैं तब भी मुझे बुलाते हैं।' मैंने कहा, 'स्त्रियाँ बहुत तेज होती हैं। आप छोटी-छोटी बातोंमें भी अपने पतिको लाचार करती हैं, जिससे उनपर आपका प्रभुत्व बना रहे।' इसपर देशबन्धु बहुत जोरसे हँसे। ऐसा लगा मानो उनकी हँसीकी गूँजसे सारी धरती हिल जायेगी। वे फूट-फूटकर रो भी सकते थे और उसी तरह जोर-जोरसे हँस भी सकते थे। किन्तु वे रोते थे एकान्तमें——ऐसे ही जैसे उनकी पत्नी रोती है। उन्होंने इस गहन शोकमें अपने अत्यन्त प्रिय परिजनोंके सम्मुख भी रोना अशोभनीय माना है। किन्तु देशबन्धु विशाल लोक समुदायोंके सम्मुख हँस सकते थे और लोगोंको हँसा सकते थे। हमारी गम्भीर बातचीत भी मुक्त हँसीसे आरम्भ होती जो घर-भरमें सुनाई देती। वे जानते थे कि मुझे पालथी लगाकर बैठना अच्छा लगता है। वे चारपाईमें लेटे थे। मैं कुर्सी पर बैठा था। मैं कभी अपने पैर लटका लेता और कभी कुर्सीमें ही पालथी लगा कर बैठनेका प्रयत्न करता। वे मेरी इस बेचैनीको वरदाश्त न कर सके। इसलिए उन्होंने अपनी चारपाईपर अपने सामने एक तकिया रखवा लिया और विस्तरपर ही एक सूती गलीचा बिछवा कर मुझे उसपर बिठा दिया। मैंने उसपर आरामसे उनके सामने बैठते हुए कहा, 'इसे देखकर मुझे एक बातकी याद आ गई है; आप जानते हैं किस बातकी? बात चालीस साल पहले की है। मैं और मेरी पत्नी जब हमारा ब्याह हुआ तब ऐसे ही बैठे थे। अब केवल एक बात और करनी रहती है——पाणिग्रहण। कह नहीं सकता, इस सम्बन्धमें बासन्ती क्या कहेंगी'। इसपर सारा घर जोरकी हँसीसे गूँज उठा। दुःख है यह हँसी अब कभी सुनाई न देगी।

ये संस्मरण ८ जुलाईको बाँकुड़ामें लिखे गये थे। लॉर्ड वर्कनहेडका भाषण कलकत्ते में ९ तारीखको छपा और मैंने उसे उसी दिन सामान्यतः देखा। मैं ये टिप्पणियाँ १० तारीखको लिख रहा हूँ। मैंने अब यह भाषण गौरसे पढ़ लिया है। उससे इन संस्मरणोंका मूल्य और भी बढ़ जाता है। मैं कह सकता हूँ कि लॉर्ड वर्कनहेडके इस भाषणसे देशबन्धुको कितनी चोट लगी होती। किसी भी तरह सही, उनका यह खयाल बन गया था कि लॉर्ड बर्कनहेड कोई बहुत बड़ा काम कर दिखानेवाले हैं। मेरी नाकिस रायमें तो इस भाषणसे घोर निराशा होती है, इस कारण नहीं कि उसके द्वारा हमें कुछ मिला नहीं है, बल्कि इस कारण कि उससे भारत-मन्त्रीपर तथ्योंसे बिलकुल उलटी बात कहनेकी जिम्मेदारी आती है। उनकी हर एक मुख्य बातका देशके प्रायः प्रत्येक शिक्षित मनुष्यने खण्डन किया है, फिर चाहे वह किसी भी दलका हो। सबसे भारी दुःखकी बात तो यह है कि वे अपनी कही सभी बातोंपर शायद विश्वास भी करते हैं। अंग्रेजोंमें आत्मवंचनाकी गजबकी शक्ति होती है। हाँ, इसमें कोई शक नहीं कि वे इससे कितनी ही दिक्कततलब हालतोंमें से निकल जाते हैं; परन्तु उससे दुनियाको, जिसके एक बड़े भागपर उनकी हुकूमत है, अपरिमित हानि पहुँचती है। वे भ्रमवश यह विश्वासकर लेते हैं कि वे यह सब पूर्णतः नहीं तो मुख्यतः दुनियाके लाभके लिए करते हैं।