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२२६. गुरुद्वारा कानून[१]

[११ जुलाई, १९२५]

अकाली आन्दोलनकी शुभ समाप्तिपर सिख और पंजाब सरकार दोनों बधाईके पात्र हैं। इसके लिए देशके सैकड़ों बड़ेसे-बड़े वीरोंको आत्म-बलिदान देनेकी जरूरत हुई और हजारों वीर अकालियोंको जेल जाना पड़ा। जेलमें उन्हें क्या-क्या दुःख भोगना पड़ा, जनता उससे परिचित ही है। ऐसा अद्भुत बलिदान व्यर्थ नहीं जा सकता था। हमें आशा करनी चाहिए कि गुरुद्वारोंका सुधार अब अबाध गतिसे निरन्तर होता रहेगा। सरकारने अकाली कैदियोंको छोड़ दिया है और अखण्ड पाठ सम्बन्धी शर्तोंकी पावन्दीमें ढिलाई कर दी है। वह इसके लिए भी बधाईकी पात्र है। मैं देखता हूँ कि सरकारने अखण्ड पाठ तथा कैदियोंकी रिहाईपर जो शर्तें लगाई हैं उनसे कुछ असन्तोष उत्पन्न हुआ है। अभी मेरे लिए इस सम्बन्धमें कोई राय देना मुश्किल है। इस टिप्पणीको लिखते समय (११-७-१९२५ को) मुझे सिर्फ एक छोटा-सा अखबारी तार ही मिला है। परन्तु यदि वे शर्तें अपमानित करनेवाली न हों और सिर्फ बतौर सावधानीके अथवा सरकारकी प्रतिष्ठा बनाये रखनेके लिए लगाई गई हों तो मैं आशा करता हूँ कि अकाली मित्र उनपर अनावश्यक आपत्ति न करेंगे। उनका मुख्य उद्देश्य तो गुरुद्वारोंमें सुधार करना था। वह पूरा-पूरा सिद्ध हो गया है। मैं दूसरी बातें बहुत छोटी नहीं तो गौण अवश्य मानता हूँ। ऐसी हालतमें अकाली लोग कैदियोंकी रिहाई तथा अखण्ड पाठ सम्बन्धी सरकारकी लगाई शर्तोंका अर्थ बहुत खींचकर न लगायें तो अच्छा होगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १६-७-१९२५

२२७. यह तो बलात् संयम है

एक बाल-विधवाने, जिसने अपना नाम-पता भी लिखा है, अपना रोना इस प्रकार रोया है :[२]

मेरे नाम ऐसे पत्र प्रायः आते रहते हैं, यही नहीं बल्कि मैं जहाँ-तहाँ बाल-विधवाओंकी दशा देखता भी रहता हूँ। मैं असंख्य बहनोंके सम्पर्कमें आता हूँ, इसलिए उनके दुःखको समझ सकता हूँ। पुरुष उनके दुःखमें जितना अधिकसे-अधिक हाथ बँटा सकता है, उतना बँटानेके लिए मैं स्त्री-सम बन गया हूँ——और वैसा बननेके लिए और भी अधिक प्रयत्न कर रहा हूँ। मैं बहुत-सी बहनोंकी माँकी कमी पूरी करनेकी कोशिश करता हूँ। इस कारण इस बनके दुःखको भली-भाँति समझता हूँ।

  1. यह १७-७-१९२५ के हिन्दुस्तानमें भी प्रकाशित हुआ था।
  2. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। लेखिकाने इसमें गांधीजीसे अनुरोध किया था कि वे विधवाओंके प्रश्नको भी उसी प्रकार उत्साहसे हाथमें लें जिस प्रकार उन्होंने अस्पृश्योंके प्रश्नको लिया है।