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'नवजीवन' बन्द करें

मैं जानता हूँ कि यह उपाय भी कठिन है। परन्तु सदुपाय कठिन दिखाई देते हैं, पर वास्तवमें कठिन नहीं होते। यह भगवद् वाक्य है।

यदि विधवाओंके अभिभावक न समझेंगे तो पछतायेंगे, क्योंकि मैं हर जगह दुराचार होता देखता हूँ। विधवासे बलात् संयम सबवानेसे उसकी, कुटुम्बकी या धर्मकी, किसीकी भी रक्षा नहीं हो सकती। मैं अपनी आँखोंके सामने इन तीनोंका नाश होता देखता हूँ।

बाल-विधवाओंके संरक्षक पुरुष परिस्थितिको समझें।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १२-७-१९२५
 

२२८. 'नवजीवन' बन्द करें

'नवजीवन' के एक पाठकने लम्बा पत्र लिखा है। मैं उसका सार अपनी भाषामें देता हूँ, क्योंकि उसकी भाषा संक्षिप्त नहीं की जा सकती है। उनका कहना है :

'नवजीवन' में केवल चरखेकी ही चर्चा भरी रहती है, इससे पाठक ऊब गये हैं। आप जैसे प्रति मास एक शिक्षण अंक निकालते हैं यदि वैसे ही प्रति मास 'चरखा अंक' भी निकालें तो उसमें पैसेकी बचत होगी और लोग शायद उसे पढ़ेंगे भी। चूँकि आप 'नवजीवन' लाभकी दृष्टिसे नहीं निकालते, इसलिए आपको ऐसी सलाह दी जा सकती है। यदि आपको 'नवजीवन' प्रति सप्ताह निकालना जारी ही रखना हो तो आप उसकी मार्फत लोगोंको किसी नई प्रवृत्तिकी जानकारी दें और वह ऐसी हो जिससे अंग्रेजोंके मनमें भय उत्पन्न हो। आप तुर्कीकी ओर देखें, उसने क्या किया? हम इस संसारमें तो यही देखते हैं, 'भय बिनु होय न प्रीति'।

मुझे ऐसी सलाह देनेवाले लोग विरले नहीं हैं। कभी-कभी उनकी शंकाओंका समाधान करनेमें 'नवजीवन' का हेतु स्पष्ट करनेका अवसर मिलता है, इसलिए इस विषयको चर्चा अप्रासंगिक नहीं। यह तो नहीं कह सकते कि 'नवजीवन' में चरखेकी ही चर्चा भरी रहती है; हाँ, यह कहा जा सकता है कि चरखेकी चर्चाको प्रधानता दी जाती है। किन्तु उसके जितने ग्राहक बचे हैं उनकी संख्या देखते हुए मैं कह सकता हूँ कि उन्हें मात्र चरखेकी ही चर्चा भी अप्रिय नहीं है।

'नवजीवन' द्रव्योपार्जनका साधन नहीं है। वह प्रत्येक प्रवृत्तिका प्रचार-साधन भी नहीं है। वह तो केवल मेरे विचारोंके प्रचारका ही साधन है। 'नवजीवन' कर्ज लेकर नहीं चलाया जा सकता; उसका खर्च विज्ञापनकी आमदनीसे भी नहीं निकाला जा सकता। वह एक या अनेक मित्रोंसे दान लेकर पाठकोंको मुफ्त भी नहीं दिया जा सकता। 'नवजीवन' के पाठक खुद अपनेको उसका मालिक समझें। 'नवजीवन' उनके लिए मेरा साप्ताहिक पत्र है। उन्हें जबतक उसमें दिये गये विचार