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'नवजीवन' बन्द करें

परन्तु चरखा शान्ति-पाठ है। वह आत्म-शुद्धिका सशक्त साधन है। आत्मशुद्धिके दूसरे साधन भी हैं किन्तु उनका विचार 'नवजीवन' में प्रसंगोपात्त किया जाता है और किया जाता रहेगा। समस्त लेखोंका मूल तो एक ही होगा——आत्मशुद्धि, स्वराज्य और सत्याग्रह। 'नवजीवन' का उद्देश्य है आन्तरिक शक्तिको बढ़ाकर स्वराज्य प्राप्त करना। इसलिए यदि 'नवजीवन' में कौंसिल-प्रवेश और ऐसे अन्य विषयोंकी चर्चा भी किसी रूपसे की ही जाती है तो वहींतक की जाती है जहाँतक उसका सम्बन्ध आत्मशुद्धि या आत्मशक्तिके विकाससे है। 'नवजीवन' फिलहाल पाठकोंको गरमागर्म तीखी चीजें नहीं दे सकता, क्योंकि उससे कुछ लाभ नहीं। केवल टीका-टिप्पणीमें समय खोना व्यर्थ है। टीका-टिप्पणी तभी उचित होती है जब उसके पीछे कुछ बल हो। जो लोग इस बातको समझते हैं वे 'नवजीवन' के महत्त्वको अवश्य जान जायेंगे और उसका त्याग नहीं करेंगे। जबतक उसके पाठकोंकी संख्या पर्याप्त रहेगी, वह तबतक चलेगा। किन्तु जब उसकी ग्राहक संख्या एक निश्चित सीमासे कम हो जायेगी तब मुझे उसे बन्द करनेमें न एक क्षणका विलम्ब होगा और न क्षोभ।

और 'नवजीवन' के बन्द हो जानेपर भी मेरा चरखा तो कदापि बन्द न होगा। क्योंकि उसको चलानेके लिए तो मुझे मित्रोंकी भी आवश्यकता नहीं होती।

लेखककी दूसरी सलाह यह है कि मैं अंग्रेजोंके मनमें भय उत्पन्न करनेवाली कोई बात लिखूँ। यह तो मेरे स्वभावके विरुद्ध है, अतः यह मुझसे नहीं हो सकता। मैं तो अंग्रेजोंको प्रेमसे जीतना चाहता हूँ। सम्भव है कि हिन्दुस्तान ऐसा न कर सके और भय पैदा करनेका मार्ग ग्रहण करे। वह ऐसा कर सकता है। परन्तु इसके लिए उसे मेरी सहायताकी आवश्यकता नहीं होगी; क्योंकि मैं उस तरहका सिपाही नहीं हूँ। मैं जिन-जिन हथियारोंकी तजवीज कर सकता हूँ उन सबका मूल प्रेम अथवा सत्य ही होता है। मेरी तजवीजमें भूल हो सकती है——हेतुमें कभी नहीं।

यह है, 'नवजीवन' की और मेरी मर्यादा।

एक अन्य पाठकने एक दूसरा सुझाव दिया है। मैं यहाँ उसका भी विवेचन कर दूँ। उसका कहना है कि 'नवजीवन' का पाँच पैसा मूल्य पाठकोंके लिए बहुत अधिक है। अतः यदि उसका मूल्य एक पैसा कर दिया जाये तो उसके ग्राहक बहुत-से लोग बन जायेंगे और 'नवजीवन' को पाससे घाटा न देना पड़ेगा। जो हिसाब-किताबके बारेमें कुछ जानते हैं वे समझ सकते हैं कि किसी वस्तुका मूल्य एक निश्चित सीमासे कम रखें तो उस अवस्थामें ज्यों-ज्यों उसकी खपत बढ़ती है त्यों-त्यों उसका घाटा भी बढ़ता है। इसका अर्थ यह है कि जो वस्तु लाभके साथ बेची जा रही हो उसीकी खपत बढ़नेमें लाभ रहता है। जो पत्र हानि उठाकर निकाला जाता हो, उसकी खपत बढ़नेसे तो हानि ही बढ़ेगी। जब 'नवजीवन' का प्रकाशन आरम्भ किया गया तब वह हानि उठाकर ही निकाला जाता था। उसका चन्दा हिसाब लगानेपर जो उचित लगा वही रखा गया है। वह लागतसे कुछ अधिक है, अतः जब उसके ग्राहक बढ़ते हैं तब उसका लाभ भी बढ़ता है। यदि कोई मनुष्य यह कहे कि उसका मूल्य यह लाभका अंश निकालकर रखा जाये तो उसे जानना चाहिए कि यह लाभका अंश इतना