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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं है कि उसके मूल्यपर उसके निकाल देनेका कोई खास असर हो।[१] 'नवजीवन' एक पैसे या दो पैसेमें बेचा जा सके, ऐसी स्थिति नहीं है। किन्तु इसके साथ मुझे यह भी बता देना चाहिए कि जहाँ जरूरत जान पड़ती है वहाँ वह बिलकुल बिना मूल्य ही भेजा जाता है। मेरी जानकारीमें ऐसे लोग अधिक नहीं हैं जिन्हें 'नवजीवन' का मूल्य देना भारी पड़ता हो, किन्तु जो, यदि यह मुफ्त मिल जाये तो, इस पत्रको पढ़नेके लिए उत्सुक रहते हों। यदि कोई ऐसे लोग हों तो मैं उनका नाम और पते अवश्य ही जानना चाहता हूँ। क्योंकि कुछ मित्रोंने 'नवजीवन' बिना मूल्य भेजनेके लिए रुपया देनेका वचन दिया है। मैं उसका उपयोग अधिकारी पाठकोंको पत्र देनेके लिए अवश्य करूँगा। ऐसे लोग व्यवस्थापकको पत्र लिखें। वे उचित समझेंगे तो उन्हें 'नवजीवन' बिना मूल्य या कम मूल्यमें दे देंगे। किन्तु पाठकों को जानना चाहिए कि यह खर्च कोई-न-कोई मित्र ही उठायेगा। उसे 'नवजीवन' नहीं उठायेगा क्यों कि उसमें यह खर्च उठानेका सामर्थ्य नहीं रहा है।

लेखकका खयाल यह भी जान पड़ता है कि 'नवजीवन' अब भी 'यंग इंडिया' का घाटा पूरा करता है। ऐसी भी कोई बात नहीं है। 'यंग इंडिया' के प्रकाशनमें अब घाटा है ही नहीं। हाँ, 'हिन्दी नवजीवन' की स्थिति अभी वैसी अवश्य मानी जा सकती है। अभी उसकी ग्राहक संख्या इतनी नहीं हो सकी है कि वह स्वावलम्बी माना जा सके। अभी उसमें कमी-बेशी होती रहती है । किन्तु उसका खर्च भी अब अकेले 'नवजीवन' के पाठक नहीं उठाते। उसका खर्च समूचा संस्थान अर्थात् उसके समस्त विभाग उठाते हैं। इस खर्चको मित्र लोग उठा सकते थे; किन्तु वे जानते हैं कि यहाँ वह परिवार बाह्य सहायता स्वीकार न करनेकी अपनी प्रतिज्ञा नहीं त्याग सकता; तब वे इस प्रकारका आग्रह कैसे करें?

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १२-७-१९२५
 
  1. यहाँ नवजीवनके व्यवस्थापकको निम्नलिखित टिप्पणी थी:
    गत ३० जूनको नवजीवनके सम्बन्धमें दो परिवर्तन करनेका निश्चय किया गया है:
    एक: जब नवजीवनके कागजका वर्तमान संग्रह समाप्त हो जाये तब नवजीवनमें बढ़िया किस्मके कागजका उपयोग किया जाये।
    दो : इस समय नवजीवनमें विशेष सामग्री देनेके उद्देश्यसे कोई परिशिष्टक निकाला जाता है तो ग्राहकोंसे उसका मूल्य अलग लिया जाता है। अब यह बन्द करके (सितम्बर १९२५ से) नवजीवनका सातवाँ वर्ष आरम्भ होनेपर जब उसमें विशेष सामग्री दी जाये और उसके अतिरिक्त पृष्ठ छापे जायें तब वे जैसे पहले पाठकोंको बिना मूल्य दिये जाते थे, वैसे ही दिये जायें।