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२३५. 'टमानी हॉल' क्या है?

देशबन्धुकी स्मृतिमें जो श्रद्धांजलि-सभा की गई थी, उसमें मैंने उनपर लगाये गये टमानी हॉलके तरीके बरतनेके आरोपके विरुद्ध जो सफाई दी थी, उसपर आपत्ति की गई है। आपत्तिका आधार है श्रद्धांजलि-सभामें ऐसी बातका उल्लेख करना। मेरा खयाल है कि सुरुचि क्या होती है, मैं यह समझता हूँ। मैं क्या कर रहा हूँ सो मैं जानता था। मैं कलकत्ताके छात्रोंके सम्मुख देशबन्धुका जीवनवृत्त प्रस्तुत कर रहा था। मेरे मनमें देशबन्धु द्वारा टमानी हॉलके तरीके अख्तियार करनेकी जो दबी-दबी चर्चा चलती रहती है, मौजूद थी। और चूँकि इस मामलेमें उनके साथ हुई बातचीत भी मुझे बिलकुल स्पष्ट याद थी, इसलिए मुझे ऐसा लगा कि यदि मैं छात्रोंको यह निश्चय न करा दूँ कि वह आरोप निराधार है तो मैं अपने साथीकी पवित्र स्मृतिके प्रति झूठा बनूँगा। आखिर हम अपने प्रसिद्ध देशवासियोंकी स्मृतिको उनके दोषोंपर आवरण डालकर तो सम्मानित नहीं करना चाहते। हमें इस बातकी छूट होनी चाहिए कि हम अपने वीरोंकी स्मृतिको सदा अपने हृदयमें रखनेके साथ ही उनके प्रमाणित दोषोंको भी स्वीकार करें। झूठी सुरुचि, सुरुचि नहीं है। यदि देशबन्धु टमानी हॉलके तरीके बरतनेके दोषी हैं तो हम इस तथ्यको स्वीकार करें और उनके उदात्ततम गुणोंको अपने हृदयमें रखते हुए उनके इन खास तरीकोंसे सावधान रहें। लेकिन चूँकि मेरा विश्वास था कि वे इन तरीकोंको बरतने के दोषी नहीं हैं, इसलिए इस बातको कहनेका विश्वविद्यालय संस्थानमें मुझे जो अवसर[१] मिला, मैंने उसे एक बहुत उपयुक्त अवसर माना।

लेकिन टमानी हॉलके तरीके क्या हैं? यदि इनके सम्बन्धमें मेरी जानकारी सही है तो यह उन गुप्त और प्रकट दुरभि सन्धियोंको दिया गया नाम है जिनका आश्रय अमरीकामें एक वर्ग-विशेषके लोग अपना स्वार्थ साधनेके लिए तथा निगमों और पदोंपर कब्जा करनेके लिए लेते थे और उसके लिए जालसाजी, रिश्वतखोरी और हर तरहके सार्वजनिक भ्रष्टाचारका उपयोग करनेमें भी नहीं झिझकते थे। देशबन्धुके अत्यन्त विश्वस्त सहायकोंने और दार्जिलिंगमें स्वयं देशबन्धुने इन आरोपोंका तीव्रतम प्रतिवाद किया था और उनकी जाँच करने एवं रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचारका आरोप सिद्ध होनेपर उसकी सार्वजनिक निन्दा करनेके लिए कहा था। यहाँ टमानी हॉलके तरीकोंके पहले अनिवार्य लक्षणका स्पष्ट अभाव है। देशबन्धु और उनके सहायकोंका कोई निजी स्वार्थ नहीं था। असल बात तो यह है कि ऐसे लोग उनके साथ अधिक टिक ही नहीं सकते थे; इसलिए यदि किसीने किसीको रिश्वत भी दी थी तो वह निःस्वार्थ-भावसे दी थी। यों मैं स्वयं रिश्वतमें ऐसा कोई फर्क नहीं करता। देशबन्धु भी नहीं करते थे। उन्होंने मुझसे जोर देकर कहा था कि सरकारने रिश्वतखोरी या भ्रष्टा-

  1. देखिए "भाषण : युनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्तामे", ३०-६-१९२५।