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कलकत्ताके मेयर

चारका एक पूर्ण शास्त्र ही रच डाला है; इसलिए हम चाहनेपर भी अपने देशको भ्रष्ट तरीकोंसे मुक्त नहीं कर सकते। सच तो यह है कि हमारी वर्तमान पीढ़ीमें हमने एक सुशिक्षित अनुशासनबद्ध और सुगठित राजनैतिक दलको कौंसिलों और विधानसभाओंमें पहली बार ही काम करते देखा है। इसलिए ऐसा दल रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचारके बिना सुगठित रह सकता है, यह कुछ लोगोंको सम्भव ही मालूम नहीं होता। सरकारने इस दलको बदनाम करनेका यथाशक्ति पूरा प्रयत्न किया है। दलके विरोधी राजनैतिक दलोंने उसके विरुद्ध रिश्वतखोरीकी हर अफवाह और चर्चाको ध्यानसे सुना है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि कुछ लोग सचमुच यह मानते हैं कि देशबन्धुने दलको सुगठित रखने और कौंसिलमें नाजुक मौकोंपर दूसरोंका समर्थन प्राप्त करनेके लिए जिन साधनोंका आश्रय लिया है उसमें से रिश्वतखोरी भी एक है।

जहाँतक मैं जानता हूँ, इस आरोपका कोई आधार नहीं है। अगर कोई व्यक्ति देशबन्धुके विरुद्ध इस आरोपको साफ-साफ सिद्ध कर सकता हो तो उससे देशबन्धुकी स्मृतिको कोई हानि नहीं पहुँचेगी। जो-कुछ चुपचाप कहा जाता है, यदि उसे जनता निश्चित रूपमें जान ले तो यह ज्यादा अच्छा है। आखिर यह आरोप केवल देशबन्धु के विरुद्ध तो नहीं है, बल्कि वह स्वयं उनके विरुद्ध न हो कर उनके दलके विरुद्ध है। यद्यपि वे अब हमारे बीचमें नहीं हैं। लेकिन उनका दल तो मौजूद है? यदि मैं दलके बारेमें कुछ भी जानता हूँ तो मुझे इतना मालूम है कि अपने विरुद्ध भ्रष्टाचार- के प्रमाण प्रस्तुत किये जानेपर उसमें कड़ी कसौटीपर खरा उतरनेकी सामर्थ्य है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १६-७-१९२५
 

२३६. कलकत्ताके मेयर

कलकत्ताके मेयरके चुनावके मामलेमें मेरे हस्तक्षेपपर[१] बंगालके कुछ मित्रोंने रोष प्रकट किया है। सामान्य शिष्टताका यही तकाजा है कि मैं इस सम्बन्धमें अपनी स्थिति प्रकट कर दूँ। इस राष्ट्रीय क्षतिके बाद जब मैंने यह निश्चय किया कि बंगालके इस महानतम संकटके समयमें मैं उसको सहारा दूँगा और जहाँतक सम्भव होगा मैं उसको ढाढ़स बँधाऊँगा एवं बासन्ती देवीको और साथ ही पितृहीन बच्चोंको भी सान्त्वना दूँगा, तब मैंने यह भी तय कर लिया था कि मैं उनमें से किसीसे भी जबरदस्ती अपनी बात नहीं मनवाऊँगा और फिर भी वे चाहेंगे तो नम्रतापूर्वक सेवा के लिए तैयार रहूँगा। एक दिवंगत मित्र और साथीके प्रति मेरा यह एक सीधा-सादा कर्त्तव्य था। अखिल भारतीय देशबन्धु-स्मारक कोषकी स्थापनाके कारण, जिसमें मुख्यतः मेरा हाथ था, मेरा बंगालमें रुकना लाजिमी हो गया था। बादकी घटनाओंसे यह सिद्ध हो गया है कि मेरा यह निर्णय कितना सही था।

  1. देखिए "भाषण : स्वराज्यवादी पार्षदोंके समक्ष", ९-७-१९२५।