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राष्ट्रीय शिक्षा

पाते। दक्षिण अमरीकाके गुलामोंको चिर अभ्यस्त होनेसे गुलामी इतनी मीठी लगती थी कि जब वे गुलामीसे मुक्त किये गये तब उनमें से कुछ तो रोने लगे थे। वे कहाँ जायेंगे, क्या करेंगे, और किस तरह रोजी कमायेंगे, ये महाप्रश्न उनके सामने आ खड़े हुए थे। यही हालत हममें से बहुतों की है। हम अंग्रेजी राजनीतिके सूक्ष्म परन्तु घातक दुष्प्रभावको अनुभव नहीं करते। क्षयके रोगी वैद्योंके सचेत करनेपर भी, गालोंकी लालीसे भुलावेमें पड़ जाते हैं। वे नहीं जानते कि यह लाली असली नहीं नकली है। वे अपने पैरोंके पीलेपनपर ध्यान नहीं देते।

मैं पाठकों को फिर सावधान करता हूँ कि मैं देशी राज्योंकी हिमायत नहीं करता। मैं तो भारतकी दुर्दशा बताता हूँ। देशी राज्य भले ही खराब हों, परन्तु उनकी इस खराबीकी ढाल अंग्रेजी राज्य है। उथला विचार करनेसे अंग्रेजी राज्य भले ही देशी राज्योंसे अच्छा मालूम हो, परन्तु वास्तवमें वह देशी राज्योंसे अच्छा नहीं है। अंग्रेजी राज्य-पद्धति प्रजाके शरीर, मन और आत्माका नाश करती है। देशी-राज्य मुख्यत: शरीरका नाश करते हैं। यदि अंग्रेजी राज्यके स्थानमें प्रजा-राज्य कायम हो जाये तो मैं देशी राज्योंमें सुधार हुआ जैसा ही मानता हूँ। किन्तु यदि अंग्रेजों या श्वेतवणियोंके बाहु-बलके राज्यकी जगह गेहुँआ रंगके लोगोंके बाहु-बलका राज्य हो जाये तो उससे न तो प्रजाको कुछ लाभ होगा और न राज्योंमें सुधार होगा। शान्तिपूर्वक विचार करनेवाला हर स्त्री-पुरुष अपने-आप इन दोनों उदाहरणोंकी सचाई समझ सकता है।

वातावरणमें अनिश्चितता होनेपर भी मैं चरखेकी और खादीकी प्रगतिको स्पष्ट देख रहा हूँ। अस्पृश्यता दूर होती ही जा रही है और हिन्दू-मुसलमान राजी-खुशीसे नहीं तो लड़-मरकर ठिकाने जरूर आ जायेंगे। इस कारण स्वराज्यकी शक्यताके विषयमें मेरी श्रद्धा अविचल है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १९-७-१९२५
 

२४८. राष्ट्रीय शिक्षा

एक गुजराती सज्जनने राष्ट्रीय शिक्षाकी दयनीय हालतका वर्णन करनेके बाद जो कुछ लिखा है, उसका सार नीचे दे रहा हूँ :

जहाँ विद्यार्थी राष्ट्रीय विद्यामंदिरोंको छोड़ रहे हों, कार्यकर्त्ता शिथिल हो रहे हों और लोग अपने लड़कोंको पढ़नेके लिए सरकारी शालाओंमें भेज रहे हों, जहाँ शेष बचे विद्यार्थी विद्यामंदिरोंमें आते वक्त ही खादी पहनते हों और स्नातकोंको यह सूझता ही न हो कि क्या धन्धा करें, वहाँ राष्ट्रीय शिक्षा कैसे टिक सकती है? क्या आप कोई मार्ग सुझायेंगे? आप यह तो अवश्य ही नहीं कहेंगे कि उन्हें चरखा चलाते जाना चाहिए।

सभी प्रवृत्तियोंमें सफलतातक पहुँचनेसे पहले उतार और चढ़ाव आते हैं। राष्ट्रीय शिक्षाके सम्बन्धमें भी ऐसा ही हो रहा है। जो लोग उतारके वक्त भी