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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गई अपने कार्यकी निन्दाको अंगीकार करे। जब कोई कारकुन अपने मालिकके हितका काम करता है तब उसे हमेशा इस बातका हक होता है कि वह स्वयं जोखिममें पड़कर भी मालिककी इच्छाके विषयमें अनुमान लगाये। आज जो अवस्था है उसमें मैं यह बेखटके कहता हूँ कि यदि अ॰ भा॰ कांग्रेस कमेटीके सदस्योंका एक बड़ा बहुमत पूर्वोक्त परिवर्तन करना चाहता है तो उसके लिए राष्ट्रका तीन महीनेका कीमती वक्त हिचकिचाहटमें व्यर्थ खोना अनुचित होगा। कांग्रेसके कानपुर अधिवेशनको, जिस मामलेका फैसला अ॰ भा॰ कांग्रेस कमेटी ही भली-भाँति कर सकती है, उसकी लम्बी चर्चासे मुक्त रखा जाना चाहिए। उसका समय दूसरे बड़े-बड़े प्रश्न तय करनेके लिए खाली रखा जाना चाहिए।

और यह बात भी ध्यानमें रहे कि मेरी पूर्वोक्त योजनाके अनुसार कांग्रेस प्रधानतः उस अर्थमें राजनैतिक संस्था हो जायेगी, जिस अर्थमें राजनैतिक शब्द मामूली तौरपर प्रचलित है। स्वराज्यवादी उसके राजनैतिक होने के बजाय खुद कांग्रेस के बन जायेंगे और यह उचित भी है। यही वह छोटेसे-छोटा जवाब है, जो अ॰ भा॰ कांग्रेस कमेटी लॉर्ड बर्कनहेडको दे सकती है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २३-७-१९२५
 

२५८. दमनका फल

एक प्रतिष्ठित अमरीकी सज्जनने मुझे डाक्टर मिलरकी 'रेसेज, नेशन्स ऐंड क्लासेज' नामक पुस्तकसे निम्न ज्ञानवर्धक अंश भेजा है :

किसी भी दलित समूहमें अनेक परस्पर-द्वेषी गुट बन जाते हैं। आयरलैंडके लोग इसके लिए बदनाम हैं। सभी दलित राष्ट्रोंमें मतभेदोंका पाया जाना इसी बातका उदाहरण प्रस्तुत करता है। वहाँ अलग-अलग गुट स्वतन्त्रताके लिए अपने अलग संघर्षमें शक्ति केन्द्रित करते हैं और संघर्षके लिए अपने खास तरीके चुनते हैं। और जब ये गुट यह देखते हैं कि एक संयुक्त उद्देश्य पूरा करनेके लिए उन्हें साथ-साथ काम करनेकी जरूरत है तो तुरन्त ध्यान मतभेदोंकी ओर खींचा जाता है; भले ही ये मतभेद बहुत छोटे-छोटे ही क्यों न हों, फिर भी इन्हें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। स्वतन्त्र होनेपर व्यक्तियों और दलोंमें पाई जानेवाली मानसिक विकृतिका यह विशेष रूप धीरे-धीरे लुप्त हो जायेगा; लेकिन यह बात स्वीकार की जानी चाहिए कि सीमित स्वतन्त्रताका अनिवार्य परिणाम यही होता है।

फिर वे मित्र पूछते हैं, 'इससे क्या भारतकी स्थितिपर प्रकाश नहीं पड़ता?' इससे सचमुच भारतकी स्थितिपर प्रकाश पड़ता है और यही कारण है कि डाक्टर