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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

की एक पृथक् जाति बन जायेगी और आपसमें ही द्वेष फैलेगा। मैं १८८७ में विलायत गया था। जब वापस आया तब——मेरी जातिमें भी कई फिर्के हैं——उनमें से कुछने तो मुझे मिला लिया और कुछने मेरा बहिष्कार कर दिया। फिर भी मेरा जातिवालोंसे कोई विरोध नहीं है। मैं अपना काम अहिंसात्मक नीतिसे लेता हूँ। मैं उनको कष्ट नहीं देना चाहता। मैं अन्त्यजोंके साथ खा लेता हूँ। मैं मुसलमानोंके साथ भी खा लेता हूँ। इसपर मेरी जातिके कुछ लोगोंने विरोध न किया। जातिवाले भोजमें मुझे नहीं बुलाते; परन्तु कुटुम्बियोंको बुलाते हैं। हम सुधारककी निन्दा न करें। उसका बहिष्कार न करें। यदि आप हिन्दू संगठन करते हैं तो छोटी बातोंको मोटी न मानें और मोटीको छोटी न मानें। आज जब जातिके अन्दर वर्णसंकर हो गया है और व्यभिचार व्यापक हो गया है, और हम अपनी लज्जाकी रक्षा नहीं कर पाते तो फिर बहिष्कार किसका करें। इससे बेहतर तो यही है कि हम अपना ही बहिष्कार करें, यही आत्मशुद्धि है। हाँ, मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूँ कि बहिष्कारके शस्त्रका दुरुपयोग न करें।

मुझे यह देखकर परम सन्तोष है कि हिन्दुओंमें मारवाड़ी समाज धनसम्पन्न समाज है। मैं यह जानता हूँ कि यह समाज धन पैदा करना जानता है और धन पैदा करता भी है। मुझसे यह बात भी छिपी नहीं है कि मारवाड़ी कौम उदारतामें भी काफी बढ़ी-चढ़ी है। मारवाड़ी जाति जिस प्रकार धन कमाना जानती है वैसे ही वह उसे खर्च भी करती है। यह बात मैं खूब जानता हूँ। पर इतना होते हुए भी इस मारवाड़ी कौममें एक बातकी कमी है; और वह कमी बहुत बड़ी है। वह है धनका अपव्यय। मारवाड़ी धन भी कमाते हैं और उसे सत्कार्यमें लगाते भी हैं। उनकी इच्छा रहती है कि उनके हाथों कोई धर्मकार्य हो। पर तो भी वे साधारणतः अपने धनको ठीक तौरपर खर्च नहीं करते। इसलिए मेरा इस मारवाड़ी कौमसे अनुरोध है कि वह अपने धनका सदुपयोग करनेकी इच्छासे उसका व्यय करते समय कुछ बातोंको ध्यानमें रखा करे। धनका व्यय करनेके पहले विचार बहुत ही आवश्यक होता है। आप धनके व्ययका विचार मनमें लाते समय उसके सदुपयोगपर गहराईसे विचार कर लिया करें। आप दानी और उदार हैं केवल इसीलिए आपको विचारसे बहुत अधिक काम लेना चाहिए। आप लोगोंको मालूम होगा कि अमरीकामें आप लोगोंमें से भी बड़े-बड़े लखपती और करोड़पति मौजूद हैं। वहाँ कारनेगी नामका एक करोड़पति धनी पुरुष रहता था; मुझे मालूम नहीं कि अबतक वह जीवित है या नहीं——उसका यह स्वभाव था कि वह सभी काम अपने ही विचारोंकी घुनमें आकर करता था; वह दूसरा क्या सोचते हैं इसपर कोई ध्यान नहीं देता था। एक बार उसके मनमें यह समाई कि रुपयेका कुछ सदुपयोग करना चाहिए। बस, वह अपना धन स्काटलैंड भेजने लगा——पुस्तकालयोंके लिए। पर वहाँके अध्यापकोंने कारनेगीको पत्र लिखा कि अपने द्रव्य भेजना बन्द करके स्काटलैंडकी रक्षा कीजिए। इसलिए हमें चाहिए कि हम यह बात पहले ध्यानमें रखें कि धन देना किस प्रकार चाहिए। हमेशा कोई भी कार्य भलीभाँति सोचकर करना चाहिए। आपको धन देते समय विवेक और विचारसे