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२६६. अखिल भारतीय देशबन्धु स्मारक

जैसे बंगालने देशबन्धुकी स्मृतिको स्थायी बनानेके लिए दस लाख रुपये इकट्ठे करनेकी प्रतिज्ञा की है और उनके पूर्वजोंके घरमें एक जनाना अस्पताल बनाने और रोगियोंके लिए परिचारिकाएँ प्रशिक्षित करनेका निश्चय किया है, वैसे ही समस्त देशको भी देशबन्धुकी पुण्यस्मृतिको अमर बनानेका निश्चय करना उचित है। यह कार्य किस प्रकार किया जाए इसके सम्बन्धमें मैंने बंगाली भाइयोंसे तो सलाह की ही है किन्तु मैं मोतीलालजीकी सलाह लिये बिना कोई सुझाव नहीं दे सकता, ऐसा मेरा मत था और इसी कारण मैंने अभीतक इस सम्बन्धमें अपने विचार प्रकट नहीं किये थे। अब मैंने पण्डितजीसे, गंगास्वरूप बासन्ती देवीसे और देशबन्धुके मुख्य-मुख्य मित्रों और अनुयायियोंसे बात कर ली है तथा कुछ लोगोंके हस्ताक्षरोंसे अपील निकाल दी है, जिसका अनुवाद पाठक पहले पृष्ठपर पढ़ेंगे।[१]

मैं यह बता चुका हूँ कि चरखे और खादी के सम्बन्धमें देशबन्धुके विचार इतने सुदृढ़ हो गये थे कि हम उनका स्मारक बनानेके लिए इनके अतिरिक्त अन्य किसी भी कार्यको हाथ में नहीं ले सकते।

पूछा जा सकता है कि उनकी मूर्ति आदि क्यों न खड़ी की जाए? इसका उत्तर यह है कि ऐसे स्थानिक स्मृतिचिह्न तो बहुत-से शहरोंमें बनाए ही जायेंगे। हमें तो ऐसे कार्यका विचार करना चाहिए जिसके द्वारा उनको बालक-बालिकाएँ और राजा-रंक सभी स्मरण करें और जिससे हिन्दुस्तानका स्थायी हितसाधन हो और साथ ही जो अपनी शक्ति से बाहर भी न हो। ऐसा कार्य तो चरखे और खादीका प्रचार ही है।

किन्तु विधानसभा सम्बन्धी प्रवृत्तिका क्या हो? क्या इसके द्वारा देशबन्धुकी स्मृति स्थायी हो सकती है? यह काम चलेगा; किन्तु यह प्रवृत्ति क्षणिक है, संकुचित है। हमें मालूम है कि देशबन्धुने भी यही कहा था। खादीकी प्रवृत्ति ही एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसमें सभी भाग ले सकते हैं और जो सबतक पहुँचती है।

लोकमान्यके निधनके समय भी जब उनका स्मारक बनानेकी बात शुरू हुई तब ऐसी ही शंकाएँ उठाई गई थीं। किन्तु पीछे सबने स्वीकार किया कि लोकमान्यने सारा समय "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है", इस सन्देशके प्रचारमें लगाया था। देशबन्धुका और हमारा काम इस सन्देशको हाथमें लेकर कार्यरूपमें परिणत करनेके लिए व्यापक और स्थायी साधन ढूँढ़ना था। इसमें हमने चरखे और खादीके प्रचारको और उसके द्वारा विदेशी कपड़ेके बहिष्कारको प्रधान स्थान दिया था। इसीलिए देशबन्धुका काम इन साधनोंका संगठन करना था। इसीलिए उन्होंने पिछले बारह महीनोंमें ग्राम-संगठनकी आवाज उठाई थी। यही बात उन्होंने विधान सभामें और मेयरके रूपमें भी कही थी। उन्होंने अपने फरीदपुरके भाषणमें[२] स्पष्ट कहा था कि विधि-

  1. देखिए "अखिल भारतीय स्मारक", २२-७-१९२५ या उससे पूर्व।
  2. मई, १९२५ में हुए बंगाल प्रान्तीय कृषि परिषद्के अध्यक्षपदसे दिया गया भाषण।