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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शास्त्रीगण विधानसभाओंका कार्य भले ही करते रहें; किन्तु दूसरे लोगोंको तो ग्रामसंगठनमें ही लगना है। देशबन्धु अन्तमें दार्जिलिंगमें इस निर्णयपर पहुँचे थे कि ग्रामसंगठनका अर्थ चरखा और खादी है। स्वराज्यके साधन रूपी सौरमण्डलमें चरखा सूर्य है। यह बात देशबन्धुको स्पष्ट दिख गई थी और उन्होंने अपने अनुयायियोंको इस सम्बन्धमें यह आदेश भी भेजा था कि वे चरखके द्वारा ग्रामसंगठनका कार्य आरम्भ करें।

यही उनका राजनीतिक वसीयतनामा है। यही उनकी अन्तिम इच्छा है। वे जिस बीजको बोकर चले गए हैं, उसे पोषण देकर अंकुरित करना और वृक्ष बनाना हमारा धर्म है। इसलिए देशबन्धुकी स्मृतिको स्थायी बनानेवाला कार्य चरखेकी प्रवृत्तिमें वृद्धि करना ही हो सकता है।

हम यह विचार करें कि अब कितना धन इकट्ठा किया जाये; कितना धन इकट्ठा करना है, यह मैंने सदाकी भाँति इस बार नहीं बताया है क्योंकि इसकी कोई सीमा नहीं है। इसके अतिरिक्त जब मैं राशि निश्चित करता हूँ तब मेरे मस्तिष्कपर उसका बहुत भार पड़ता है और तब मैं उतनी राशि इकट्ठी करनेका आग्रह भी करता हूँ। इस बार भी मैंने राशि अपने मनमें तो निश्चित कर ली है; किन्तु मैं उसमें अपीलपर हस्ताक्षर करनेवाले मित्रोंको भागी बनाना नहीं चाहता, क्योंकि वे सद्भावसे और श्रद्धाके कारण राशिपर हस्ताक्षर करके मेरे प्रति उत्तरदायी तो बन जाएँगे; किन्तु उसको इकट्ठा करनेके लिए अपना पूरा समय अथवा अधिकांश समय न दे सकेंगे।

किन्तु पाठकोंको यह समझ लेना चाहिए कि हमें साठ करोड़ रुपयेका लेन-देन कर सकने योग्य पूँजीसे व्यापार करना है। इसके लिए तो जितना रुपया मिले उतना कम ही है। किन्तु मेरी अविचल श्रद्धा है कि ज्यों-ज्यों खादीकी प्रवृत्ति सफल होती दिखाई देगी त्यों-त्यों उसमें लोगोंका विश्वास बढ़ेगा और त्यों-त्यों अधिकाधिक पैसा भी मिलेगा।

हमने पत्रिकामें बताया है कि धनकी उपलब्धि तीन बातोंपर निर्भर है, देशबन्धुके प्रति भक्ति, खादी और चरखेमें श्रद्धा और न्यासियोंमें विश्वास। देशबन्धुके प्रति भक्तिका प्रदर्शन समस्त देशमें हुआ है। मेरा अनुभव है कि खादी और चरखेमें लोगोंकी श्रद्धा बढ़ती जाती है। न्यासियोंको लोग जानते हैं। जहाँ जमनालाल-जैसे निर्मल खजांची और जवाहरलाल-जैसा उतना ही सावधान और प्रामाणिक मन्त्री हो, वहाँ अविश्वासके लिए कोई स्थान ही नहीं हो सकता।

मैं चाहता हूँ कि कोई भी, दूसरे क्या देते हैं, इसका खयाल न करे। 'नवजीवन' के पाठक जितना धन देना चाहें वे उतना 'नवजीवन' को भेज दें। उसकी प्राप्ति 'नव- जीवन' में स्वीकार की जाएगी। यदि वे जमनालालजीको सीधा भेजें तो 'नवजीवन' में हिसाब रखने और फिर उसे खजांचीको भेजनेकी झंझट कम हो जाएगी।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २६-७-१९२५