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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कुछ प्रतिष्ठा हो और तुम जातिसे बहिष्कृत कर दिये जाओ तो मुझे इससे प्रसन्नता होगी। किन्तु लोग इस तरहसे अपनी प्रतिष्ठा गँवाने के लिए तैयार नहीं है। मैं काठियावाड़में एक जगह गया था। वहाँ हजारों लोगोंने मुझपर यह छाप डाली कि वे अस्पृश्यताके विरुद्ध है। वहाँसे आते समय मैं एक अच्छे कार्यकर्ताको वहाँ जानेका निर्देश दे आया था। यह कार्यकर्ता ब्राह्मण है; किन्तु वह अपने साथ अपने कार्यमें सहायता लेने के लिए एक हरिजन बालक रखता है। यदि आप उस बालकको देखें तो आप यह नहीं कह सकते कि उस बालकमें और आपके स्वच्छसे-स्वच्छ तरुणमें कोई भी अन्तर है। जब मैंने लोगोंसे उन दोनोंको वहाँ रखकर सेवा लेने के लिए कहा तब उन लोगोंने प्रसन्नता व्यक्त की और कहा कि हमें अपने यहाँके अन्त्यजोंकी सेवाके निमित्त उनकी आवश्यकता है। किन्तु जब यह कार्यकर्ता और वह अन्त्यज बालक वहाँ गये तब जिस मनुष्यने उनको निमन्त्रित किया था वह डर गया और उनको वहाँ न रख सका। उस क्षण उस मनुष्यकी परीक्षा ही हुई और वह उसमें खरा नहीं उतर सका। वह गिर गया और उसने अपना हिन्दुत्व गॅवा दिया। मैं आपसे ऐसे अवसरोंपर साहस दिखानेकी आशा करता हूँ।

इसके अतिरिक्त अस्पृश्यता-निवारणका अर्थ वर्णाश्रम धर्मका नाश नहीं है। किन्तु आपको यह बात समझनी चाहिए। मानव जातिकी सेवा करनेके लिए मुझे किसी मनुष्य विशेषके साथ खाने-पीने की अथवा किसी पुरुष विशेषको अपनी बेटी ब्याहनेकी जरूरत नहीं पड़ती। एन्ड्रयूज मेरे साथ नहीं खाते-पीते और न शौकत अली ही मेरे साथ खाते हैं। फिर भी मैं दोनोंको अपने सगे भाईसे भी अधिक मानता हूँ। मैं शौकत अलीके साथ बैठकर खा ही नहीं सकता, क्योंकि वे मांसाहारी हैं। यदि मैं कोई ऐसी चीज खाता होऊँ जो शौकत अलीके लिए जायज न हो तो वे भी मेरे साथ नहीं खायेंगे। किन्तु इससे मेरे प्रति उनके प्रेममें कोई अन्तर नहीं आयेगा। खानपान और विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्धोंसे सेवाकार्य करने में कोई बाधा नहीं आती। यदि किसी प्राणीकी सेवा करने में ईश्वर भी मेरे मार्गमें बाधक हो तो मैं उसका भी विरोध करूँगा। किन्तु मैं एक बातका खुलासा और कर दूं। मैं यह नहीं चाहता कि आप अन्त्यज अथवा नामशूद्रोंके साथ खायें-पियें अथवा विवाह-सम्बन्ध करें, किन्तु आप जैसा व्यवहार शूद्रोंसे करें वैसा ही उनसे भी करें, यह मैं अवश्य चाहता हूँ। मैंने सुना है कि हिन्दू लोग नामशूद्रोंके हाथका पानी नहीं पीते। यदि आप शूद्रके हाथका पानी पीते हैं तो नामशूद्रके हाथका पानी न पीना अपराध है। मुझे यह भी मालूम हुआ है कि धोबी नामशूद्रोंके कपड़े नहीं धोते और नाई उनके बाल नहीं काटते! यह मानव जातिके विरुद्ध अपराध है। किसी भी प्राणीकी सेवा करनेसे इनकार करना उच्च भावना कदापि नहीं है।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, १०-५-१९२५