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भाषण : ईसाई धर्म प्रचारकोंके समक्ष

लगता है कि आप यह मान ही बैठे हैं कि मैं अंग्रेजोंसे घृणा करता हूँ। आप ऐसा क्यों सोचते हैं? मेरे सैकड़ों अंग्रेज मित्र हैं। यदि मैं अंग्रेजोंसे घृणा करता हूँ तो मैं मुसलमानोंसे और उसी कारण हिन्दुओंसे भी प्रेम नहीं कर सकता। मेरा प्रेम बहिष्कारवादी नहीं है। यदि मैं आज अंग्रेजोंसे घृणा करूँ तो कल मुसलमानों और परसों हिन्दुओंसे भी घृणा करने लगूँगा। मैं घृणा करता हूँ उस शासन-प्रणालीसे जिसे अंग्रेजोंने मेरे देशपर थोपा है। इस शासनतंत्रने भारतके लोगोंका लगभग पूरे तौरपर आर्थिक और नैतिक विनाश कर दिया है। जिस प्रकार मैं अपनी पत्नी और अपने बच्चोंको उनकी अनेक त्रुटियोंके बावजूद प्यार करता हूँ, उसी प्रकार मैं अंग्रेजोंसे उस हानिकर शासन-प्रणालीके बावजूद प्यार करता हूँ, गलतीसे जिसके लिए उन्होंने अपनेको उत्तरदायी बना रखा है। अन्धा प्रेम, प्रेम नहीं होता। जो प्रेम अपने प्रेमपात्रोंकी त्रुटियोंकी ओरसे आँखें बन्द कर लेता है, वह पक्षपातपूर्ण और खतरनाक भी होता है। यदि आपको इस पत्रसे सन्तोष न हो तो आप मुझे पुनः अवश्य लिखें।[१]

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

अंग्रेजी पत्र (एस॰ एन॰ १०५४७) की फोटो-नकलसे।

 

२७५. भाषण : ईसाई धर्म प्रचारकोंके समक्ष

२८ जुलाई, १९२५

[मुझे गत मासकी २८ तारीखको कलकत्तेमें ईसाई युवक-संघ (यंग मैन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन) में मिशनरियोंके सम्मुख भाषण देनेका सौभाग्य मिला था। इस भाषणका संकेतलिपिमें लिखा हुआ विवरण मुझे सुलभ कराया गया है और चूँकि यह भाषण ऐसा था जिसमें सबकी दिलचस्पी हो सकती है, इसलिए इसे संक्षेपमें मैं नीचे देता हूँ। इसमें मैंने किसी भी विशिष्ट विचार या शब्दावलीको नहीं छोड़ा है, किन्तु वर्णनात्मक अंशोंको छोड़ दिया है।

मो॰ क॰ गांधी]

शायद आपमें से बहुत कम लोग जानते होंगे कि ईसाइयोंसे——तथाकथित ईसाइयोंसे नहीं, बल्कि सच्चे ईसाइयोंसे मेरा सम्पर्क १८८९ से ही रहा है। तब मैं नौजवान था और लन्दनमें रहता था। जैसे-जैसे समय बीतता गया है, इस सम्पर्कमें भी प्रगाढ़ता और परिपक्वता आती गई है। दक्षिण आफ्रिका जाकर मैंने देखा कि मैं बहुत प्रतिकूल परिवेशमें पहुँच गया हूँ, किन्तु वहाँ भी मैंने सैकड़ों ईसाइयोंको अपना मित्र बना लिया। वहाँ मैं दक्षिण आफ्रिका जनरल मिशनके निदेशक स्वर्गीय श्री स्पें-

२७–२९
  1. लगता है कि आगे भी कुछ पत्रव्यवहार हुआ। गांधीजीने उनको दूसरा पत्र भी लिखा था। देखिए खण्ड ३०, "पत्र : फ्रेड ई॰ कैम्बेलको", २३-४-१९२६।