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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सर वाटनके सम्पर्कमें आया और बादमें रेवरेंड ए॰ मरे तथा अन्य कई ईसाइयोंसे भी मेरा सम्पर्क हुआ।

इसलिए आज इतने सारे मिशनरियोंसे मेरा परिचय होना कोई नवीन बात नहीं है। मेरे जीवनमें एक समय ऐसा भी आया था जब मुझपर मेरे एक बहुत ही सच्चे और घनिष्ठ मित्रने नजर गड़ा रखी थी (हँसी)। वे एक बहुत बड़े और नेक क्वेकर थे। उनका खयाल यह था कि इतना भला आदमी ईसाई न हो, यह कैसे हो सकता है! लेकिन मुझे बड़े दुःखके साथ उन्हें निराश करना पड़ा। दक्षिण आफ्रिकासे एक मिशनरी मित्र मुझे अब भी पत्र लिखा करते हैं और पूछते हैं, 'अब आप क्या सोचते हैं?' मैंने इनसे बराबर यही कहा है कि जहाँतक मैं जानता हूँ, जो ठीक है मैं वही सोच रहा हूँ। अगर इन मित्रोंका तात्पर्य यह रहा हो कि मैं [ईसाई ढंगसे] प्रार्थना करूँ तो उसका जवाब तो मैंने दे दिया है। वह जवाब यह है कि मेरे हृदयतलसे निकली यह प्रार्थना कि प्रभु, मुझे रास्ता दिखाओ, और उस रास्तेपर चलनेके लिए बुद्धि और साहस दो, रोज ही मेरे कमरेके बन्द दरवाजेको पारकर उस सर्व-शक्तिमानतक पहुँचती है।

अपने एक ऐसे ही मित्रसे किये गये वादेके मुताबिक मुझे लगा कि स्वर्गीय कालीचरण बनर्जी से मिलना मेरा कर्त्तव्य है। मुझसे कहा गया था कि वे देशके महानतम भारतीय ईसाइयोंमें से हैं और मैं उनसे मिलूँ। सो मैं उनके पास गया। यह सब मैं आपको यह बतानेके लिए कह रहा हूँ कि सच्चा मार्ग ढूँढ़नेके लिए मैं कुछ उठा न रखूँ। इस खयालसे मैंने कितनी गहरी खोज की है। इसलिए स्वभावतः मैं उनके पास बिलकुल खुला दिमाग लेकर और उनसे जो-कुछ सीख सकूँ, ग्रहण कर सकूँ, उसे सीखने, ग्रहण करने, की वृत्ति लेकर गया। और उनसे मैं मिला भी बहुत ही प्रभावकारी स्थितिमें। मैंने देखा कि श्री बनर्जी और मुझमें बहुत-कुछ समानता है। उनकी सादगी, उनकी विनय, उनकी हिम्मत और उनकी सत्यनिष्ठा——इन सभी चीजोंकी मैंने सदा सराहना की है। मैं जब उनसे मिला तब उनकी पत्नी मृत्यु-शय्यापर पड़ी थीं। इससे अधिक मर्मस्पर्शी दृश्यकी, मनुष्यकी प्रवृत्तियोंको इससे अधिक ऊर्ध्वमुखी बनानेवाली परिस्थितियोंकी, आप कल्पना भी नहीं कर सकते। यह सन् १९०१ की बात है। मैंने श्री बनर्जीसे कहा, 'मैं एक सत्यान्वेषीके रूपमें आपके पास आया हूँ। मैंने अपने कुछ अत्यन्त प्रिय ईसाई मित्रोंको यह वचन दिया था कि मैं सच्चे प्रकाशकी खोजके प्रयत्नमें कुछ भी उठा नहीं रखूँगा; मैं आपके पास अपने उस वचनको पूरा करनेके लिए ही आया हूँ।' मैंने उनसे कहा कि मैंने अपने मित्रोंको यह भरोसा दिलाया है कि यदि मैं उस प्रकाशको देख-भर सका तो कोई भी सांसारिक लाभ मुझको उस प्रकाशसे विलग नहीं रख सकता। मेरे और उनके बीच जो थोड़ी-सी बातचीत हुई, उसका वर्णन करनेमें मैं आपका समय नहीं लूँगा। हमारे बीच बहुत ही अच्छी और सौम्य ढंगकी बातचीत हुई। जब मैं वहाँसे चला तो मेरे मनमें कोई दु:ख, अवसाद या निराशा नहीं थी, लेकिन यह सोचकर मैं कुछ उदास हो गया कि श्री बनर्जी भी मेरा समाधान नहीं कर पाये। ईसाई धर्मको मेरे सामने जिस रूपमें पेश