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भाषण : ईसाई धर्म प्रचारकोंके समक्ष

किया गया उसे हृदयंगम करनेका मेरा यह अन्तिम सचेष्ट प्रयत्न था। उस रूपमें आज मेरी स्थिति यह है कि यद्यपि मैं ईसाई धर्मकी बहुत-कुछ बातोंकी सराहना करता हूँ, फिर भी मैं रूढ़िगत ईसाईधर्मसे अपना तादात्म्य स्थापित करनेमें असमर्थ हूँ। मुझे आपसे पूरी नम्रताके साथ कहना होगा कि मैंने हिन्दू धर्मको जिस रूपमें जाना है, उस रूपमें वह मेरी आत्माको पूरी शान्ति देता है, उससे मेरा समस्त अस्तित्व आप्लावित है, और जो शान्ति मुझे 'भगवद्गीता' और 'उपनिषदों'से मिलती है, वह 'गिरि-प्रवचन'को पढ़कर भी नहीं मिलती। यह बात नहीं है कि उसमें बताये गये आदर्शका मूल्य नहीं समझता, 'गिरि-प्रवचन'के कुछ मूल्यवान उपदेशोंकी मुझपर गहरी छाप भी पड़ी है, किन्तु मुझे आपके सामने स्वीकार करना चाहिए कि जब मेरा मन शंकाओं और निराशाओंसे घिर जाता है और जहाँतक दृष्टि जाती है, मुझे प्रकाशकी एक किरण भी नहीं दिखाई देती तब मैं 'भगवद्गीता' की शरण लेता हूँ और उसमें मुझे कोई-न-कोई शान्तिदायी श्लोक मिल ही जाता है और तब दारुण दुःखके बीच भी मैं तत्काल मुस्करा उठता हूँ। मेरे जीवनमें सांसारिक दुःख और शोकके न जाने कितने प्रसंग आये हैं, और अगर वे मुझपर कोई खरोंच नहीं छोड़ पाये तो इसका कारण 'भगवद्गीता' की शिक्षा ही है।

मैंने ये सब बातें आपसे इसलिए कही हैं कि आपको मेरी स्थिति बिलकुल साफ-साफ मालूम हो जाये और तब यदि आप चाहें तो मैं आपसे निकटतर सम्पर्क स्थापित कर सकूँ। मैं आपको यह भी बता दूँ कि मैं 'बाइबिल' और उसकी टीकाओं तथा अपने ईसाई-मित्रों द्वारा दी गई ईसाई धर्मकी अन्य पुस्तकोंको पढ़कर ही नहीं रुका बल्कि मैंने मनमें सोचा कि यदि मुझे तर्क और बुद्धिके द्वारा ही अपने मनका सन्तोष प्राप्त करना है तो मुझे अन्य धर्मोके ग्रन्थ भी पढ़ने चाहिए और तब कोई निर्णय करना चाहिए। तब मेरा ध्यान 'कुरान' की तरफ गया। यहूदी धर्ममें ईसाई धर्मसे जितना-कुछ अधिक है उसे भी मैं जहाँतक समझ सकता था, मैंने समझनेकी कोशिश की। मैंने जरथुस्त्रके धर्मका भी अध्ययन किया और अन्त में मैं इस निष्कर्षपर पहुँचा कि सभी धर्म ठीक हैं, किन्तु उनमें हरएकमें कुछ-न-कुछ कमी है। यह स्वाभाविक है और अनिवार्य भी है। क्योंकि उनकी व्याख्या हमने अपनी तुच्छ बुद्धि, और कभी-कभी संकुचित हृदयके धरातलपर की है, और अकसर तो हम उनका गलत अर्थ ही निकाल बैठे हैं। मुझे यह देखकर बहुत दुःख हुआ कि सभी धर्मोमें कतिपय मूल बातोंकी विभिन्न बल्कि परस्परविरोधी व्याख्याएँ की गई हैं। निदान मैंने अपने-आपसे कहा, ना; यह सब मेरे लिए नहीं है। यदि मैं अपनी आत्माको शान्ति देना चाहता हूँ तो मुझे अपना मार्ग स्वयं ही टटोल-टटोलकर खोज निकालना होगा। मुझे अपना ध्यान चुपचाप प्रभुपर केन्द्रित करना चाहिए और उसीसे रास्ता दिखानेको कहना चाहिए। संस्कृतमें एक सुन्दर श्लोक है, जिसमें कहा गया है, 'ईश्वर मनुष्यकी सहायता तभी करता है, जब वह सर्वथा असहाय और दीन हो जाता है।' आपमें से कुछ लोग तमिल देशके हैं। जब मैं तमिल सीख रहा था तब मैंने डा॰ पोपकी एक पुस्तकमें एक तमिल कहावत देखी थी, जिसका अर्थ यह है कि 'ईश्वर असहायोंका