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भाषण : ईसाई धर्म प्रचारकोंके समक्ष

कान बन्द न करें, अपनी आँखें मूँद न लें और अपने हृदयके द्वारोंको बन्द न रखें, बल्कि इस देशमें जो भी अच्छी बातें हैं, उनको ग्रहण करनेके लिए अपने कान, अपनी आँखें, और सबसे बढ़कर अपने हृदयका द्वार खुला रखें। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि भारतमें बहुत-सी अच्छी बातें हैं। आप इस भ्रममें न रहें कि 'सेंट जॉन' के प्रसिद्ध छन्दको दुहरा जानेसे ही कोई आदमी ईसाई बन जाता है। अगर मैंने 'बाइबिल' के मर्मको समझा है तो मैं कहूँगा कि ऐसे बहुत-से लोग हैं जिन्होंने ईसा मसीहका नाम नहीं सुना है या जिन्हें इस धर्मकी, ईसाई धर्मसंस्था द्वारा की गई व्याख्या मान्य नहीं है, फिर भी, यदि आज ईसा मसीह हमारे बीच सदेह आ जायें तो, जो उन्हें हममें से अधिकांश लोगोंकी अपेक्षा शायद वे ज्यादा स्वीकार्य होंगे। इसलिए आपसे मेरा निवेदन है कि आपके सामने जो समस्या उपस्थित है, उसपर आप आग्रह-मुक्त मनसे और नम्रताके साथ विचार करें।

आज प्रातः कुछ मिशनरियोंके साथ मेरी बातचीत हुई थी। बातचीत अनौपचारिक ढंगकी थी। यहाँ मैं उसका वर्णन नहीं करना चाहता। किन्तु इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि वे बहुत अच्छे आदमी हैं। वे मेरी बातको ठीक-ठीक समझना तो चाहते थे; फिर भी मुझे उनको यह समझानेके लिए करीब-करीब डेढ़ घंटे कोशिश करनी पड़ी कि मैंने जो-कुछ लिखा है, उसमें से अंग्रेजोंके प्रति दुर्भाव या घृणासे प्रेरित होकर कुछ भी नहीं लिखा है। इतनी-सी बात समझानेमें मुझे बड़ी कठिनाई हुई। सच तो यह है कि मैं उनको यह बात समझा भी सका या नहीं, सो नहीं जानता। यदि नमक अपना नमकीनपन छोड़ दे तो वह दुबारा काहेसे नमकीन बनाया जा सकता है? मेरे भीतर जो सत्य है, उसे यदि मैं इन तीन मित्रोंको, जो निश्चय ही मेरे पास समझनेकी वृत्तिसे आये थे, नहीं समझा सका तो दूसरोंको समझानेमें मेरा क्या हाल होगा? मुझे प्रायः ऐसा लगा है कि सत्यान्वेषीको चुप रहना चाहिए। मैं जानता हूँ कि मौनमें कार्य-साघनकी अद्भुत क्षमता है। मैं दक्षिण आफ्रिकामें ट्रेपिस्ट सम्प्रदायके ईसाइयोंके एक मठमें गया था। यह स्थान बहुत सुन्दर था। मठके अधिकतर सदस्य मौन व्रत लिये हुए थे। जब मैंने वहाँके प्रधानसे पूछा कि इस मौनका हेतु क्या है तो उसने कहा कि इसका हेतु स्पष्ट है। 'हम मानव प्राणी दुर्बल होते हैं। हम प्रायः यह नहीं जानते कि हम क्या कह रहे हैं। यदि हम उस मूक और क्षीण स्वरको सुनना चाहते हों, जो हमारे भीतर सदा उठता रहता है, तो स्वयं लगातार बोलते रहकर उसे नहीं सुना जा सकता।' उनकी सारगर्भित शिक्षाको मैंने समझ लिया। मैं मौनके रहस्यको जानता हूँ। इस समय आपके सामने बोलते समय भी मेरे मनमें यह प्रश्न उठ रहा है कि क्या यह अच्छा नहीं होता कि मैंने इन मित्रोंसे इतना ही कहा होता, "जब हमारे मनमें व्याप्त सन्देहका कुहासा फट जायेगा तब हम एक-दूसरेको ज्यादा अच्छी तरहसे समझ सकेंगे।" इस समय आपके सामने बोलते हुए अपनी दीनताका अनुभव हो रहा है। मैंने इन मित्रोंसे बहस क्यों की? लेकिन मैं आपसे ये बातें दो कारणोंसे कह रहा हूँ। एक तो यह कि वस्तुस्थितिको स्वीकार करना चाहता हूँ, और दूसरे मैं आपसे भी यह कहना चाहता हूँ कि यदि आप दूसरे पहलूको नहीं देखना