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भाषण : आंग्ल-भारतीयोंकी सभामें

लें तो आपका, मेरा और उस सरकारका भी, जिसके प्रति वफादार रहना आप अपना कर्त्तव्य समझते हैं, कल्याण ही कल्याण है।

आप एक सेतु बन सकते हैं, एक ऐसा आधार जुटा सकते हैं, जिससे होकर भारतीय और अंग्रेज दोनों कोई हानि या असुविधा उठाये बिना ही एक-दूसरेसे सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं और सांस्कृतिक आदान-प्रदान कर सकते हैं। किन्तु यदि आप शिमलाकी ऊँचाई चाहते हैं तो वह ऊँचाई आपको मिल नहीं सकती। तब आपके भाग्यमें गरीबी ही रहेगी और भारतके भाग्यमें भी। आंग्ल-भारतीय-जैसा महत्त्वपूर्ण समाज जो कि बहादुरी और सूझबूझसे सम्पन्न है, इसीलिए सर्वनाशकी ओर जा रहा है कि आप स्पष्ट चीजको देखना नहीं चाहते और दुराग्रहपूर्वकं असम्भवको सम्भव बनानेका प्रयत्न करते हैं। इस प्रक्रियासे आप जनसाधारणसे अलग होते जा रहे हैं। इस प्रकार आप भारतीयों और यूरोपीयों——दोनोंके द्वारा बहिष्कृत हो गये हैं।

श्री गांधीने एक और संस्मरण सुनाया जो एक बहुत ही सुसंस्कृत काठियावाड़ी आंग्ल-भारतीयके सम्बन्धमें था। उन्होंने कहा कि ये आंग्ल-भारतीय यूरोपीय ढंगका जीवन बितानेका प्रयत्न कर रहे थे और फिर भी वे सर्वत्र बहिष्कृत होते थे। उन्होंने कहा :

उनके दुःखमय जीवनका चित्र मेरे सम्मुख अब भी सजीव है।

हमारे राष्ट्रीय जीवनमें यह एक नाजुक समय है। मैं इस समय आपसे यह अवश्य कहना चाहता हूँ, 'आंग्ल-भारतीयो, आप दृढ़तापूर्वक और साहसपूर्वक यह तय करें कि क्या आप राष्ट्रसे अलग रहना चाहते हैं और क्या आप यूरोपीय ढंगका जीवन बिताना चाहते हैं।' ध्यान रखिए, मैं आपसे यह नहीं कह रहा हूँ कि आप अंग्रेजोंसे अलग हो जायें। चूँकि मैं आज स्वाभाविक जीवन बिता रहा हूँ, इसलिए मैं अंग्रेजोंकी पहले जितनी कद्र करता था, आज उससे भी ज्यादा करता हूँ। एक समय ऐसा था जब मैं भी यूरोपीयोंकी नकल करता था। तब मैं भी बहुत छोटी- छोटी चीजोंको अत्यधिक महत्त्व देता था। लेकिन मेरे जीवनमें एक ऐसा अनमोल वक्त आया कि मैंने उन सब चीजोंको हिन्द महासागरमें फेंक दिया और फिर उनकी ओर मुड़कर भी नहीं देखा। मैंने कहा: 'अब मैं ऐसा जीवन नहीं बिताऊँगा। अब मैं सिजविककी शब्दावलिमें कहें तो, "सभ्यताका स्याहीसोख बनना" स्वीकार नहीं करूँगा।' इसलिए अब मैं ज्यादा स्नेह प्राप्त कर पाता हूँ और लोग ज्यादा आसानीसे मुझसे मिल-जुल पाते हैं। आज यूरोपमें मेरे जितने मित्र हैं, उतने मेरे जीवनमें पहले कभी नहीं रहे। उसका कारण यही है कि मैंने अपनी समस्त कृत्रिमताएँ त्याग दी हैं। मैं आपको असंस्कृत दिखाई दे सकता हूँ, पर दिखावटी शिष्टतासे यह गँवारूपन ज्यादा अच्छा होता है। इसलिए मैं आपसे कहता हूँ कि आप नकल करनेकी आदत छोड़ दें, जनसाधारणकी बात सोचें और उनमें घुलमिल जायें। इससे आपका उत्थान हो सकता है और हम संसारको भारतीय मानव-समाजका ऐसा सुन्दर नमूना पेश कर सकते हैं, जिसमें सब जातियाँ अपनी-अपनी खूबियोंको कायम रखते हुए तथा अपने सर्वोत्तम गुणोंकी रक्षा करते हुए मिलजुल कर