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कांग्रेस और राजनैतिक दल


यह बात निर्विवाद है कि कांग्रेसमें और उसके बाहर स्वराज्यदलका बहुमत है; इसलिए अभी तो अंशतः कांग्रेसपर उसीका नियन्त्रण रहेगा। परन्तु यह स्थिति उस करारसे भिन्न है जो उस दलको, अन्य तथ्यों और विचारोंका खयाल न करें तो भी, प्रधान स्थान दे देगा।
कांग्रेस ब्रिटेनकी पार्लियामेंटकी तरह होनी चाहिए। ब्रिटेनको पालियामॅटमें विभिन्न राजनीतिक दलोंके लोग रहते हैं और जिनका उस समय बहुमत होता है वे उसके कामोंका संचालन और नियन्त्रण करते हैं। यह स्थिति चुनावके परिणामस्वरूप होती है; वह किसी बाहरी करारके द्वारा उत्पन्न नहीं होती। हमारी राष्ट्रीय कांग्रेसमें भी ऐसी ही वैधानिक व्यवस्था होनी चाहिए।
मेरा अनुरोध है कि आप अपनी स्थिति स्पष्ट करें। जो लोग स्वराज्यवादी नहीं हैं उनकी भी कांग्रेसमें आनेकी प्रबल इच्छा हो रही है। आशा है, उनके रास्तेमें रुकावट डालनेवाला कोई काम नहीं किया जायेगा।
कांग्रेस पहलेकी तरह ही प्रधान राष्ट्रीय संस्था रहनी चाहिए——फिर इस समय उसकी बागडोर चाहे किसी भी दलके हाथमें रहे।
पुनश्च :
लिखित करार कृत्रिम, अवैधानिक और अनावश्यक होते हैं और उनका फल मतभेद और फूट होता है। करार बदले तो जा सकते हैं, परन्तु मैं कहता हूँ कि करारकी जरूरत ही क्या है?

मैं नहीं समझता कि पण्डित मोतीलाल नेहरूके नाम लिखे मेरे पत्रमें कोई ऐसी बात है जिससे सत्यानन्द बाबूके पत्रमें व्यक्त शंका उत्पन्न हो सकती हो। मेरे उस पत्रका आशय सिर्फ इतना ही था कि मेरे कारण बेलगाँवमें कांग्रेसके विशुद्ध राजनैतिक कार्योंपर जो रोक लगाई गई थी वह हटा दी जाये।

पिछले वर्ष मेरी यह राय थी कि यदि भारतका शिक्षित समुदाय अपनी सारी शक्ति रचनात्मक कार्यक्रममें केन्द्रित कर दे और उसे अपना प्रधान कार्य बना ले तो हम स्वराज्यके बहुत नजदीक पहुँच जायेंगे। जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, मेरी यह राय अभीतक कायम है। परन्तु मैं कुबूल करता हूँ कि मैं लोगोंको इस बातका पूरी तरह विश्वास करानेमें सफल नहीं हो पाया हूँ। ऐसी हालतमें मुझ-जैसे आदमीको, जिसने अपना हित जनसाधारणके हितसे एक कर रखा है और जिसका समस्त शिक्षित समाजके विचारसे मूलभूत मतभेद है, कांग्रेसका विकास और मार्गदर्शन नहीं करना चाहिए; बल्कि शिक्षित भारतीयोंको इसे करने देना चाहिए और उनके कार्यमें कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए। मैं उनपर अपने विचारोंका असर अब भी डालना चाहता हूँ, परन्तु कांग्रेसका नेतृत्व करके नहीं; बल्कि इसके विपरीत जहाँतक सम्भव हो चुपचाप उनके हृदयपर अपना प्रभाव डालकर——जैसा कि मैं १९१५ और १९१९ के बीच करता था। भारतके शिक्षित समाजने भारी कठिनाइयोंके बावजूद देशकी जो महान् सेवा की है, मैं उसे स्वीकार करता हूँ। उनकी अपनी एक कार्यप्रणाली है