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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि सविनय अवज्ञाकी तैयारीका खयाल यूरोपीय संघमें दिये गये भाषणके बाद पैदा नहीं हुआ।

मुझे सविनय अवज्ञाकी और सहयोगकी इच्छामें कोई विसंगति नहीं दिखाई देती। आपको याद होगा कि मैंने यूरोपीय संघमें यह बात एक पुरानी घटनाके सिलसिलेमें कही थी। असहयोगके दौरेके जमानेमें एक अंग्रेजने मुझे चिढ़ाते हुए कहा था कि आप राग तो असहयोगका अलापते हैं, किन्तु छटपटा रहे हैं सहयोगके लिए। मैंने तत्काल उनसे कहा कि बेशक, बात ऐसी ही है और यह बिलकुल ठीक है। और मैं कहता हूँ कि मेरी स्थिति आज भी वही है। अन्यायका सविनय प्रतिकार मेरे नजदीक कोई नया सिद्धान्त या आचार-नियम नहीं है। इसमें मेरा विश्वास सदासे है और मैंने इसपर अपने जीवनमें सदा आचरण किया है। देशको सत्याग्रहके लिए तैयार करनेका अर्थ है अहिंसाके लिए तैयार करना। देशको अहिंसाके लिए तैयार करनेका अर्थ है, उसे रचनात्मक कार्योंके लिए संगठित करना; और रचनात्मक कार्य और चरखा दोनों मेरे लिए पर्यायवाची शब्द हैं। स्पष्ट ही आपका विचार यह जान पड़ता है कि मुझे असहयोग या सत्याग्रह करनेपर पछतावा हुआ है। यह बात हरगिज नहीं है। मैं अब भी पक्का असहयोगी हूँ। यदि मैं भारतके शिक्षितवर्गको अपने मतका बना सकूँ तो मैं आज ही पूरा असहयोग घोषित कर दूँ। परन्तु मैं ठहरा अमली आदमी। जो हकीकत मेरी आँखोंके सामने है, मैं उसे देखता हूँ। मैं अपने कुछ अत्यन्त आदरणीय साथियोंको यह विश्वास करानेमें सफल नहीं हो सका हूँ कि हमने १९२०में जिस प्रकारका असहयोग शुरू किया था उससे वर्तमान अवस्थामें भी देशका हित-साधन हो सकता है। वह इसीलिए स्थगित है। परन्तु मैं आपसे यह हकीकत नहीं छिपा सकता कि यदि मैं अपने उन साथियोंको फिर अपने विचारका कायल कर सकूँ तो मैं जरूर ही कांग्रेससे कहूँ कि वह फिर लड़ाईका शंख फूँक दे।

अपने कमजोर रहते हुए मैं खुद सरकारसे स्वेच्छापूर्वक सहयोग करनेका इच्छुक नहीं हूँ; वह तो गुलामका-सा सहयोग होगा। मैं अपनी कमजोरी तसलीम करता हूँ; इसलिए केवल सहयोगकी इच्छा करके सन्तोष मान लेता हूँ, और अपनी शक्ति बढ़ाकर उस इच्छाको पूर्ण करना चाहता हूँ। यदि मैं हिंसात्मक साधनोंका कायल होता तो मैं उसे कभी न छुपाता और उसका जो कुछ नतीजा होता उसे भोग लेता। मैं देशसे पुकार-पुकारकर और असन्दिग्ध भाषामें कह देता कि इस देशको तबतक आजादी नहीं मिल सकती या उसके लिए सरकारसे तबतक सम्मानपूर्वक सहयोग करनेकी कोई गुंजाइश नहीं है जबतक वह अंग्रेजी संगीनोंका मुकाबला अपनी संगीनोंसे करनेके लिए तैयार नहीं होता। परन्तु बात यह है कि मैं तो संगीनोंके सिद्धान्तमें विश्वास ही नहीं करता। मैं तो यह भी मानता हूँ कि दुर्भाग्यसे या सौभाग्यसे, यह सिद्धान्त भारतमें कदापि सफल नहीं होगा। सो इसके लिए एक दूसरे शस्त्रकी आवश्यकता है, और वह है सविनय अवज्ञा।

आपकी रायमें वह हिंसाकी ही तरह खतरनाक है, और यदि यही राय सरकारकी भी हो, तो उसे मेरी प्रवृत्तियोंपर रोक लगानी होगी, क्योंकि मैं जेलसे छूटनेके बाद