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भाषण : कलकत्ताकी सार्वजनिक सभामें

महात्मा गांधीने भाषण जारी रखते हुए कहा कि मैंने आज तीसरे पहर देखा कि चोरबागानमें मारबल पैलेस नामक निवासस्थानके सामने सैकड़ों कंगालोंको भोजन दिया जा रहा था। यह दृश्य उन लोगोंके लिए जो कलकत्ताके भूखे लोगोंमें हररोज भोजन बाँटनेका आयोजन करते हैं, न तो उत्कर्षकारी है और न सम्मानजनक ही। वे यहीं नहीं जानते कि वे कर क्या रहे हैं। वे इस बातसे अनभिज्ञ हैं कि उनके इस भ्रममूलक औदार्यके द्वारा भारतको ऐसी हानि पहुँच रही है जो कभी पूरी होने-वाली नहीं है। जिन स्त्री-पुरुषोंको भोजन दिया जा रहा है उनमें से एक भी व्यक्ति अपाहिज नहीं है। इन भोजन करनेवालोंके हाथ-पैर उतने ही अच्छे हैं जितने इस व्यवस्थाको करनेवालोंके। क्या उनका खयाल है कि जो लोग अपनी आजीविकाके लिए काम कर सकते हैं, उन्हें खाना खिलानेमें कोई पुण्य है? जो लोग इसे पुण्य समझते हैं उनसे मेरा मतभेद है। उन्हें यूरोपीय लेखकों द्वारा अज्ञानवश या नासमझीके कारण कभी-कभी दिये गये प्रमाणपत्रसे हर्षित न हो जाना चाहिए कि भारतमें अनाथालय जसी कोई चीज है ही नहीं। इन यूरोपीय लेखकोंका विश्वास है कि भारतमें गरीबों और भूखोंको भोजन देनकी स्वसंगठित प्रणाली है जिसके फलस्वरूप अनाथालय खोलने या चलानेकी जरूरत ही नहीं रहती। यह कथन आंशिक रूपसे ही सच है और इस प्रणालीसे भारतका कोई हित नहीं हुआ है। हम आज निठल्लोंको भोजन दे रहे हैं। उनमें से कुछ तो चोर हैं। यदि यह प्रथा आगे भी जारी रही तो मुझे इस अभागे देशका भविष्य उज्ज्वल नजर नहीं आता। इसलिए हमें इस प्रथासे सावधान हो जाना चाहिए। मैंने ये बातें परोपकारियोंकी आलोचना करनेके लिए नहीं कहीं हैं। क्या ही अच्छा होता कि वे मेरी सुननेको तैयार होते। तब मैं उनसे कहता कि आप अपनी परोपकारिताको इस प्रकार गलत ढंगसे प्रयुक्त न करें बल्कि उन स्त्री-पुरुषोंको कुछ काम दें। क्या आपने कभी इस बातपर गौर किया है कि ये लोग बेकार क्यों हैं? भारतके लाखों लोग अपना समय व्यर्थ ही क्यों खो रहे हैं? भारत वक्तको यों ही बरबाद करनेवालोंका राष्ट्र नहीं है। यदि ऐसा होता तो हमारा राष्ट्र कबका समाप्त हो गया होता। हकीकत यह है कि उनके लिए पर्याप्त काम ही नहीं है और इसलिए हमारा यह शानदार मुल्क हमारी अज्ञानताके कारण, हममें सच्ची देशभक्ति अभावके कारण ऐसे लोगोंका समुदाय बढ़ा रहा है जिसका खेतोंकी उपजपर गुजारा नहीं हो सकता। इसलिए इसका उपाय यह है कि उनके लिए आजीविकाके साधन उपलब्ध किये जायें। चरखेसे अधिक अच्छा आजीविकाका साधन इन लाखों लोगोंके लिए अन्य क्या हो सकता है? इसलिए यदि भारतके शिक्षित लोग जनताको हीन बनानेवाली गरीबीको दूर करना चाहते हैं तो उन्हें नित्य कमसे-कम आधा घंटा चरखा स्वयं कातना चाहिए।

[अंग्रेजीसे]
फॉरवर्ड, १-८-१९२५