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परिशिष्ट

 

परिशिष्ट १

सरदार जोगेन्द्रसिंहका पत्र

इधर कुछ वर्षोंसे जिन मसलोंसे रात-दिन आपका दिलोदिमाग जूझता रहा है, उन्हींके बारेमें आपको कुछ लिखते मुझे संकोच होता है। मैं सचमुच ही ऐसा मानता हूँ कि उनके बारेमें आपको कोई राय देनेका मुझे शायद हक नहीं है। अगर है भी तो सिर्फ इस बिनापर कि गाँवोंकी जिन्दगीसे मेरा सम्पर्क बहुत पासका रहा है। असल भारत तो गाँवोंमें ही बसता है और गाँवोंके जीवनको मैं जितना जानता हूँ, उतना चन्द ही राजनीतिज्ञ जानते होंगे। हो सकता है कि गाँवोंके उद्गार सुनने-समझनेसे आपको यथार्थको समझनेमें कुछ मदद मिले।

मैं कई बरस पहले लाहौरमें श्री पादशाहके साथ आपसे मिला था। हम लोगोंने चरखा और शक्ति-चालित मशीनोंके आर्थिक पहलूपर चर्चा की थी। मैं आपकी रायसे सहमत नहीं हुआ था। और आज भी मेरा वही खयाल है कि मानव-प्रकृति अपने-आपसे, आसपासके वातावरणसे और अब तो सारे संसारमें व्याप्त वातावरणसे ऊपर उठकर उसके विरुद्ध काम करनेमें समर्थ नहीं हो सकती। मैं इतना जरूर मानता हूँ कि यदि कभी मानव-प्रकृतिको दिव्य प्रकाशकी झलक मिल जाये तो उसके लिए सरल जीवन और उच्च विचार ही मानवीय सुखका सबसे सच्चा मार्ग है। मेरी समझमें यह बात भी आती है कि लोग जिन चीजोंको नापसन्द करते हैं यदि वे उनसे असहयोग करना और कष्ट-सहनको स्वीकार करना सीख लें तो वे अपनी इच्छाको प्रभावपूर्ण बना सकते हैं, एक ऐसी शक्ति अपने अन्दर पैदा कर सकते हैं जो सबको झुका दे और जिसमें विनाश और विध्वंसका कोई जोखिम भी न रहे, जैसा कि युद्धों और क्रान्तियोंके बाद दिखाई पड़ता है।

ईश्वरने आपको एक सन्देशके प्रचारका काम सौंपा है। वह सन्देश है शान्तिको सुनिश्चित बनानेवाला, सद्भावनापर आधारित स्वतन्त्रताका सन्देश; मानव-सभ्यताको, आज वह अपने अन्दर अपेक्षित शील और नैतिक संयम पैदा किये बिना, प्राकृतिक शक्तियोंका अंधाधुंध उपयोग करते जानेके जिस आत्मघातक रास्तेपर चल रही है, उससे बचानेका सन्देश। प्राच्य देशोंमें तो अनादि कालसे शील और नैतिक संयमकी इस आवश्यकताको आधारभूत आवश्यकता माना जाता रहा है। आप अपने सन्देशका प्रचार करते रहें। काल उसे कभी-न-कभी जनताके हृदयमें उतार ही देगा। मातृभूमिके प्रति आपका प्रेम आपको प्रेरित करता है कि आप अपने सिद्धान्तोंके जरिए वर्तमान तात्कालिक समस्याओंके हल निकालनेका प्रयास करें। आपको इस बातपर भी राजी