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परिशिष्ट ६
मेडेलिन स्लेडका पत्र

६३, बेडफोर्ड गार्डन्स
कैम्पडेन हिल,
लन्दन, वेस्ट–८
पेरिस
२९ मई, १९२५

परमादरणीय गुरुदेव,

अपने प्रथम पत्रके उत्तरके लिए मैं आपको हृदयसे धन्यवाद देती हूँ। मैंने तो ऐसी आशातक करनेका साहस नहीं किया था कि आप उत्तर देंगे। आपका एक-एक शब्द मैंने बड़ी ललकके साथ हृदयंगम कर लिया है, और अब मैं आपको फिर पत्र लिखनेका साहस कर रही हूँ। क्योंकि मैंने स्वयं ही अपने लिए परीक्षाका जो वर्ष चुना है, उसका आधेसे-अधिक बीत चुका है।

मेरी प्रथम प्रेरणामें किंचित भी कमी नहीं आई है, बल्कि आपकी सेवा करनेकी मेरी इच्छा अधिकाधिक उत्कट होती गई है। मेरे अन्तरको प्रेरित करनेवाली प्रेरणाकी तीव्रताको व्यक्त करना शब्दोंके बसका नहीं; इसीलिए मैं अपने समूचे हृदयसे ईश्वरसे यह माँगती हूँ कि मुझे अपने हृदयका प्रेम आचरणमें व्यक्त करनेकी सामर्थ्य दे। मैं जो भी काम करूँगी वह कितना ही तुच्छ क्यों न हो पर उसके पीछे एक बिलकुल ही सच्चा मन, एक परम शुद्ध भावना तो होगी ही।

और अब मैं आपसे एक अनुरोध करती हूँ——अन्तरकी गहराइयोंसे निकला एक अनुरोध :

आप मुझे अपने आश्रममें आनेकी अनुमति दीजिए ताकि मैं वहाँ रहकर कताई और बुनाई सीख सकूँ, और नित्य प्रतिके जीवनमें आपके आदर्शों और सिद्धान्तोंपर अमल करना सीख सकूँ, और बेशक, यह सीख सकूँ कि मैं भविष्यमें आपकी सेवा किस रूपमें करनेकी आशा कर सकती हूँ। आपके उद्देश्यकी एक सुयोग्य सेविका बननेके लिए मैं ऐसी तालीम निहायत जरूरी समझती हूँ, और यदि आप मुझे इस रूपमें स्वीकार करें तो मैं अपनी ओरसे भरसक प्रयत्न करूँगी कि आपकी बिलकुल ही अयोग्य शिष्या सिद्ध न हो पाऊँ।

इस बीच मेरी तैयारी यथा-शक्ति जारी है। मैं कताई और बुनाई करती हूँ (केवल उनसे ही, क्योंकि फ्रांस और इंग्लैंडमें रुईसे कातना-बुनना शायद कोई जानता ही नहीं)। मैं अनेक कृपालु भारतीय मित्रोंकी सहायतासे हिन्दुस्तानींके पाठोंको पढ़ती हूँ। और इससे कितनी नई बातें सामने आ रही हैं। मैं भारतीय विचारधारासे जितनी अधिक परिचित होती जाती हूँ उतना ही अधिक मुझे ऐसा लगता है मानो बहुत