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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भटकनेके बाद आखिरकार अपने घरमें पहुँच रही हूँ——वह घर जो मुझसे कबका छूट गया था।

मैं अपना जीवन अधिकसे-अधिक सरल बनाती जा रही हूँ——जितना कि इन परिस्थितियोंमें सम्भव है। मैंने सभी किस्मकी शराब, बीअर इत्यादिका पान करना बिलकुल छोड़ दिया है, और मैं अब किसी भी तरहके मांसका सेवन नहीं करती।

मेरे हृदयमें अपार आह्लाद और तीव्र विकलता है——आह्लाद इस बातका कि मैंने अपना सर्वस्व आपको और आपकी जनताको अर्पित कर दिया है और विकलता इस बातकी कि मेरे पास न्यौछावर करनेके लिए इतना कम——एक कण-मात्र है।

मैं उस दिनके लिए ललक रही हूँ जब मैं भारत-भूमिपर पैर रखूँगी। लेकिन अभी तो पाँच लम्बे महीने पड़े हुए हैं। मैं ६ नवम्बरको बम्बई पहुँचूँगी और यदि आश्रम आनेकी अनुमति मिल गई तो उसी शाम गाड़ी पकड़कर दूसरे दिन सुबह अहमदाबाद पहुँच जाऊँगी।

तो अनुमति है आदरणीय गुरुदेव?

इस पत्रका उत्तर स्वयं लिखनेका कष्ट उठानेकी बात कृपया मत सोचिए, पर आप इसके उत्तरमें किसीके जरिये एक-दो शब्द शायद कहलवा दे सकते हैं।

सदा ही आपकी विनम्र और सबसे निष्ठावान सेविका,

मेडेलिन स्लेड

[पुनश्च :]

अपने काते हुए ऊनके दो छोटे-से नमूने साथ भेज रही हूँ।

अंग्रेजी पत्र (एस॰ एन॰ १०५४१) से।