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१४. भाषण : बंगाल प्रान्तीय परिषद्भमेऺ
फरीदपुर
 
३ मई,१९२५
 

सभापति महोदय और मित्रो,

स्वागत समितिके अध्यक्ष तथा हमारे सुयोग्य सभापतिने मेरे बारे में जो सौजन्य- पूर्ण और उदारतापूर्ण शब्द कहे हैं, उनके लिए धन्यवाद देना मेरा कर्त्तव्य है। सबसे पहले मैं विषय समितिको एक पूर्णतः सामंजस्यपूर्ण ढंगसे सारी चर्चा और कार्रवाई समाप्त करने के लिए बधाई देता हूँ। सारी कार्रवाई खुले रूपसे हुई — आज तो राजनीतिके सम्बन्धमें हमारे पास रहस्य-जैसी कोई चीज रही ही नहीं है। इसीलिए हम खुशीसे खुफ़िया पुलिस तकको उपस्थित रहनेकी अनुमति देते आ रहे हैं; यहाँ- तक कि हम उन्हें आमन्त्रित भी करते हैं कि वे आकर हमारी नीतिमें, हमारे कार्यो में, राष्ट्रनीतिके लिए या उससे बाहर किये जानेवाले हमारे कार्यों में त्रुटियाँ निकाल सकें। किन्तु जैसा मैंने कहा है, अब यह भी एक खुला रहस्य है कि आज दोपहरके बाद सदनके सामने पेश किये जानेवाले प्रस्तावोंपर, कुछ वादविवाद, या मतभेद या विमतियाँ प्रकट की गई थीं। किन्तु अन्त भला तो सब भला। मुझे तो याद नहीं पड़ता कि कोई ऐसी विषय-समिति कहीं रही है जिसमें थोड़े-बहुत मतभेद या वादविवाद न हुए हों। मेरा खयाल है कि चाहे भारतमें हो या अन्य देशोंमें, मतभेद अन्ततक हमारे साथ चलेंगे। यूरोपीय मन्त्रि-परिषदोंके भी अपने रहस्य होते हैं, किन्तु यदि हमें उनके तथा उनकी विषय-समितियोंके रहस्योंका पता लगानेकी अनुमति दी जाये, तो मेरा खयाल है कि उनके बारे में भी उसी प्रकारकी बातें सुननेको मिलेंगी जिस प्रकारको हमारे मतभेदों और विरोधोंके बारेमें मिलती हैं। इसलिए हमें इन मतभेदों और विरोधोंको आवश्यकतासे अधिक तूल नहीं देना चाहिए और अपने सामने सदा ही यह विचार बनाये रखना चाहिए कि जो भी हो, अन्तमें हम सब एक हो सकते हैं, और कुछ कर दिखाने के लिए एक हो सकते हैं। (खूब ! खूब ! )

मैने देशबन्धुका भाषण पढ़ा। मुझे उसका अंग्रेजी अनुवाद पढ़नेका सुख और सौभाग्य मिला। मैं नहीं जानता कि मूल बंगला है या अंग्रेजी अनुवाद; बंगलाके विद्वानोंने मुझे बताया है कि बंगला पाठ भी अंग्रेजीके समान ही मधुर और वाक्पटुता- पूर्ण है। जो भी हो, जब मैं कलकत्ते में था, मुझे अंग्रेजी भाषणकी यह अग्रिम प्रति देशबन्धुकी संक्षिप्त, प्रेमभरी, मधुर टिप्पणीके साथ कि यदि मैं कुछ मिनट निकाल सकूँ तो इस भाषणको पढ़ लूं, उपलब्ध हुई थी। हाँ, तो मैं वह भाषण आरम्भसे लेकर अन्ततक पढ़ गया और मुझे लगा कि कहीं उन्होंने मेरी सभी भावनाएँ तो नहीं चुरा लीं। (हँसी)। पर मैंने देखा कि भाषा तो मेरी नहीं है। वह भाषा एक विद्वान् की है, ऐसे देहातीकी नहीं जो अपनेको कतैया, भंगी, बुनकर, किसान और