पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 27.pdf/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३
भाषण': बंगाल प्रान्तीय परिषद्में

दलित लोगोंके लिए उपयोगी स्वराज्य था। मुझे अपनी भावी सफलताके बारेमें कोई सन्देह नहीं है। मेरी सफलता सुनिश्चित है। जबतक में चरखेपर डटा रहूँगा, तबतक मेरा भविष्य सुनिश्चित है। मैं आपसे वादा करता हूँ कि यदि यहाँ श्रोताओंमें से प्रत्येक, जिनमें देशबन्धु दास भी शामिल हैं, कहे कि “गांधी गलतीपर है, चरखा कुछ भी नहीं, यन्त्र और तेज गतिके इस युगमें यह एक मूर्खतापूर्ण वस्तु है", तब भी मैं अपने जीवनको अन्तिम साँसतक यही कहूँगा : "मुझे चरखा दो और मैं भारतके लिए स्वराज्यका ताना-बाना कात दूंगा।"

आप अन्य किसी शर्तपर स्वराज्य प्राप्त नहीं कर सकते। हमें कर्मवीरोंका राष्ट्र बनना होगा, बातें करनेवालों या आलसी लोगोंका नहीं। हम स्वभावसे आलसी नहीं है, किन्तु परिस्थितियोंके कारण हमारे देशके करोड़ों लोगोंको खाली बैठे रहने- पर विवश होना पड़ता है। आप खाली बैठी हुई इस जनताके बारेमें उतना नहीं जानते जितना मैं जानता हूँ। मैं चम्पारनके १७ लाख लोगोंके बीच छः महीने या उससे भी अधिक समयतक रहा हूँ और मैंने देखा है कि वे कुछ नहीं करते थे, बस मेरे चारों ओर चक्कर लगाते रहते थे। वे एक ऐसे व्यक्तिसे कुछ प्रेम पाकर सन्तुष्ट थे जिसे वे अपना सच्चा सेवक समझते थे, किन्तु वे काम कुछ नहीं करते थे। उस समय मेरे पास यह चरखा नहीं था, अन्यथा मैं इसे उनके सामने रख देता। वे फाके नहीं कर रहे थे, भूखों नहीं मर रहे थे, किन्तु वे अपने हाथ-पैरोंका उपयोग करना भूल गये थे। वे थोड़ी-सी जमीन जोतते, नील उगाते, उसे काटते और कमाते, किन्तु चरखा नहीं चलाते थे। उनके घरों में कोई उद्योग-धन्धा नहीं था। चूंकि उसे वे वर्षों पहले भूल चुके थे, इसलिए वे अब इसे बिलकुल बेकार समझते थे। इसीलिए तो मैं इसे जबरदस्ती थोपा गया आलस्य कहता हूँ। ईस्ट इंडिया कम्पनीने हमारे हाथ-पैर बेकार बना दिये थे। मैंने ब्रिटिश शासनपर जितने अपराधोंका आरोप लगाया है, उनमें यह अपराध जघन्यतम है। इसीलिए मैंने कहा है कि जबतक मैं अंग्रेजोंमें हृदय-परिवर्तन नहीं देखता, जबतक बे भारतीय जनताके बारेमें इस ढंगसे महसूस नहीं करने लगते और यह नहीं कहते, “हाँ, हमें पश्चात्ताप है, हमने भारतसे जो-कुछ छीना है उसे हमें वापस कर देना चाहिए", तबतक मैं उनकी ओर मैत्रीका हाथ नहीं बढ़ाऊँगा और कहता रहूँगा, “यदि आप मुझे अपना भाई नहीं कहते तो मैं आपसे हाथ नहीं मिला सकता।" जबतक वे भारतीय जनताके साथ हमदर्दी जाहिर नहीं करते, तबतक मैं हाथ नहीं बढ़ा सकता। शासन समय-समयपर हम- दर्दीका एक छोटा-सा टुकड़ा उठाकर जनताके मुंहपर फेंकता है। मैं इसे काफी नहीं समझता। इसलिए मैं चाहता हूँ कि अंग्रेज शासक जनताकी भावनाओंको समझें, जनताके आर्थिक संगठन और प्रणालीको समझें। इसे वे स्वयं अपनी आँखोंसे देखें-समझें, यूरोपीय अर्थशास्त्रियोंकी पुस्तकोंके माध्यमसे नहीं, चाहे वह कितना ही विख्यात अर्थशास्त्री क्यों न हो। उन्हें जनताको ध्यानमें रखकर सोचना चाहिए। जिस क्षणसे अंग्रेज जनताको ध्यानमें रखकर सोचने लगेगा उसी क्षण आप मुझे उसके चरणोंमें दण्डवत् पायेंगे, क्योंकि मैं उसके गुणोंको, उसकी क्षमताओंको जानता हूँ।

२७-३