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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अमीर हैं या गरीब? मुझे लगा मानो बंगालने इसका जवाब दे दिया है ? मैंने पूछा कि दूसरा दर्जा मेरे आरामके लिए काफी नहीं समझा गया, क्या बंगालमें इसलिए इस पहले दर्जे के डिब्बेकी व्यवस्था की गई है ? जवाब मिला कि हमने तो दूसरे दर्जेका किराया देकर पहला दर्जा हासिल किया है। किन्तु क्या मुझे इससे सन्तोष हो सकता था? मेरे सिद्धान्तके अनुसार तो कोई अनुचित वस्तु मुफ्त दे तो भी हम उसे इस्तेमाल नहीं कर सकते। यदि कोई ऐसा मूर्ख या दीवाना मिल जाये जो मुझे हीरेका हार मुफ्त पहनाये तो क्या मुझे वह पहनना चाहिए? क्या मेरे साथी भी जो मेरे लेखनका काम करते हैं और पाखाना भी साफ कर सकते हैं, मुझ जैसे ही नाजुक हैं ? इतने नाजुक हैं कि उनके लिए भी दूसरे दर्जेके किराये में पहले दर्जेकी व्यवस्था करनी जरूरी हो? फिर यह काम रेलविभागकी कृपादृष्टिके बिना सम्भव नहीं है। क्या हम ऐसा निजी एहसान ले सकते हैं? मुझे तो इसमें प्रेमका पागल- पन या अतिरेक ही दिखाई दिया।

अब इसका मुझे उपाय करना है। हरि इच्छा बलीयसी।

परन्तु यह प्रेमका पागलपन एकतरफा न था। हम रातको फरीदपुरके लिए रवाना हुए। मैने समझा था कि मुझे रास्तेमें पर्याप्त शान्ति मिलेगी और मैं अपनी नींदकी पिछली कमी पूरी कर सकूँगा। परन्तु ऐसा हुआ नहीं। 'आलो आलो' तथा दूसरी आवाजोंसे नींद मुश्किलसे ही आ सकी। गाड़ी भी प्रायः हर स्टेशनपर रुकती थी। हर स्टेशनपर लोगोंकी भीड़। 'दर्शन' की पुकार। मैंने तो रातको 'दर्शन' न देनेका निश्चय कर रखा था सो मैं पड़ा तो रहा, परन्तु फायदा क्या हुआ? मेरे साथी भी लोगोंको बहुत समझाते थे। वे ज्यों-ज्यों समझाते थे, लोग त्यों-त्यों अधिक उत्सुक होते थे। 'वन्देमातरम्', 'महात्मा गांधीकी जय', 'आलो आलो' का घोष ऊँचा ही चढ़ता जाता था। 'आलो' कहते हैं बत्तीको। डिब्बेकी बत्ती बुझा दी गई थी। लोग बत्ती जलवाकर अन्ततः मुझे सोता हुआ ही देख लेना चाहते थे। फरीद- पुर पहुँचनेतक हर स्टेशनपर यही हालत रही। मैं प्रार्थना करता रहा —'हे ईश्वर! तू इस प्रेमसे मेरी रक्षा कर।'

फरीदपुर पहुंचे, वहाँ देखा कि भीड़ बहुत है। परन्तु वहाँ प्रबन्ध सामान्यत: अच्छा था। स्वागत समितिके अध्यक्ष बाबू सुरेन्द्र बिश्वासने लोगोंसे कह रखा था कि वे शोरगुल और धक्का-मुक्की न करें। उन्होंने उतरनेकी जगह ही मोटर खड़ी कर रखी थी; इसलिए हम बिना दिक्कत नगरमें पहुँच गये।

प्रदर्शनी

मुझे ठहरनेके मुकामपर पहुँचनेसे पहले प्रदर्शनीके उद्घाटनकी रस्म पूरी करनी थी। प्रदर्शनीमें सरकारी कृषि-विभागसे अनाजके बीजों आदिकी सहायता ली गई थी। परन्तु मुख्य भाग खादीका ही था। बिश्वास बाबूने निश्चय किया था कि हाथकते सूत, ऊन या रेशमसे बने कपड़ेके सिवा कोई दूसरा कपड़ा प्रदर्शनीमें न रखा जायेगा। इससे प्रदर्शनीके खादी-विभागको बहुत सहायता मिली। लोगोंका ध्यान उसकी तरफ ज्यादासे-ज्यादा गया और उन्हें मिलके कपड़ेसे उसका मुकाबला करनेका मौका नहीं