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बंगालके संस्मरण

आया। खादीम महीन कपड़ा भी बहुत दिखाई दिया। महीन सूतका भी खासा बड़ा ढेर था। एक जगह दो मनुष्य कुर्सीपर बैठकर सूत कातते रहे थे। उन्हें सूत लपेटने की क्रिया करने में अलग समय नहीं देना पड़ता था। सूत जैसे-जैसे कतता जाता था वैसे-वैसे लिपटता जाता था। इस चरखेसे प्रति घंटा ज्यादा सूत कतता हुआ तो दिखाई नहीं दिया; परन्तु इतना अवश्य था कि इससे एक क्रिया कम करनी पड़ती थी और चूंकि उसका चक्र पाँवसे चलता था, इसलिए दोनों हाथ खाली रहते थे।

सिरामपुरके सरकारी कारखानेसे इस शर्तपर करघे लाये गये थे कि उसमें ताने-बाने, दोनोंमें हाथका ही सूत काममें लाया जायेगा। और पूछताछसे मालूम हुआ कि आजकल उक्त कारखाने में विद्यार्थियोंको हाथसे सूत कातनेकी क्रिया भी सिखाई जाती है। फटका करघे बहुतसे थे और उन सबमें हाथकते सूतका ताना लगाया जाता था। इस विभागमें सन और ऊन भी हाथसे काते जाते थे।

वहाँ चमड़ा रंगने और कमाने आदिको क्रियाएँ भी दिखाई जाती थीं।

कताईको प्रतियोगितामें अनेक स्त्री-पुरुष भाग ले रहे थे इसलिए दोनों विभाग जुदे-जुदे रखे गये थे। लगभग सब महीन सूत ही कातते थे। इससे मेरे मनपर तो यह छाप पड़ी है कि यदि बंगाल उत्साहपूर्वक काम करेगा तो खादीमें प्रथम स्थान प्राप्त कर लेगा। बंगालमें खादी न पहननेका हठ ठाननेवाले लोग कम देखे जाते है। कलाके प्रति रुचि बहुत है। सूत कातनेका कौशल भी बहुत है। मध्यम वर्गकी बहुत-सी स्त्रियाँ सुन्दर सूत कातती है और भावपूर्वक कातती हैं। मैं स्वागत समितिक अध्यक्षके घरमें ठहराया गया था। उनकी धर्मपत्नीने अपने परिवारके लिए बहुत सूत काता है। वे अपने घरके बाड़ेमें देव-कपास बोती हैं और रुईको धुने बिना ही सूत कातती हैं। मेरे लिए पूनियाँ तो इस भली बहनने ही बनाई थीं। पूनियाँ बहुत बढ़िया थीं। वे जरूरतके अनुसार कपासको हाथसे उतार कर व्यवस्थित रूपसे रखती जाती हैं और बातकी-बातमें पूनियोंका ढेर लगा देती हैं। लगता है कि बंगालमें स्वराज्यवादी बड़ी तादादमें चरखा चलाने लगे हैं। बिश्वास बाबू खुद स्वराज्यवादी हैं। कलकत्ताकी एक कांग्रेस कमेटीके अध्यक्ष भी स्वराज्यवादी हैं। उन्होंने सार्वजनिक सभामें मेरे पास अपना काता हुआ सूत भेजा था। फरीदपुरमें तो बहुतसे लोग पूर्ण रूपसे खादी पहने हुए दिखाई दिये। स्त्रियोंकी एक खास सभा की गई थी। उसमें भी दूसरी और जगहोंसे—खासतौरसे गुजरातसे—ज्यादा स्त्रियाँ खादी पहने हुए थीं। मैंने देखा कि बंगाली बहनें साड़ीमें चुन्नट नहीं रखतीं, इसलिए उनको इतनी लम्बी साड़ीकी जरूरत नहीं होती। किन्तु खादीकी साड़ी पहननेवाली बहनोंकी संख्या अधिक थी, इसका कारण यह नहीं था। यही कहा जा सकता है कि उनमें समझ अधिक है। हाँ, यह बात सच है कि कितनी ही स्त्रियों और पुरुषोंने खादी सिर्फ इसी अवसरके लिए पहनी थी।

यह तो फरीदपुरकी जो छाप मुझपर पड़ी, वही मैंने दी। मैं यह दौरा खादीके ही निमित्त कर रहा हूँ। इसलिए अभी तो मुझे बहुत अनुभव होगा। तमाम अनुभवोंका योगफल क्या होगा—सो तो पाठकोंको बादमें ही मालूम होगा। प्रदर्शनी में प्रवेश। शुल्क कुछ नहीं रखा गया था। इसलिए उससे हजारों लोगोंने लाभ उठाया। फरीद-