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भाषण : अष्टाङ्ग आयुर्वेद विद्यालयके शिलान्यास-समारोहमें

उल्लेख था। और वह बहुतसे अन्य विषयोंके साथ एक छोटी-सी पुस्तिकामें सम्मिलित किया गया था। उसके बाद मैं अपने उसी विचारका और अधिक विस्तार करता रहा हूँ। परन्तु मैंने जो विचार १९०८ में प्रकट किया था उसके तर्क-बलमें कोई कमी नहीं आने दी। जब भी मैं चिकित्सकोंके पास जाता हूँ और उनकी औषधियों का उपयोग करता हूँ, मैं मनमें डरता रहता हूँ और मेरे बदनमें कँपकँपी छूटती है। और यह इस बातके बावजूद कि यरवदा जेलमें[१] मुझे एक ऐसे शल्य-चिकित्सकके तेज चाकूके सामने आत्म-समर्पण करना पड़ा जिससे मैं भली प्रकार परिचिततक न था। मनुष्य तथा मित्र के रूपमें मुझे कर्नल मैडॉकपर[२] पूरा-पूरा विश्वास था, लेकिन उनके तरीकों तथा उनकी बताई औषधियोंपर मुझे पूरा विश्वास नहीं था। यदि आज आप उनके पास जायें तो वे आपको दो प्रकारके प्रमाणपत्र देंगे,—एक मेरे पक्षमें और दूसरा मेरे विपक्ष में। वे प्रमाण पत्र देंगे कि कुछ हदतक मैं उनकी बात माननेवाला और उनपर उनकी आशासे अधिक भरोसा रखनेवाला मरीज था। किन्तु वे यह भी कहेंगे और प्रमाणित करेंगे कि उन्हें जितने रोगियोंसे अबतक साबका पड़ा था उनमें वे मेरी गिनती सबसे मुश्किल किस्मके मरीजोंमें करते हैं। उनको मेरे निषेघोंसे निबटना पड़ता था। मैं कहा करता था मैं फलाँ चीज पिऊँगा, फलां नहीं। और मेरी स्वीकृतियोंकी अपेक्षा मेरे निषेध, संख्या में अधिक होते थे। इसलिए जब कभी वे चाहते कि मेरा वजन कुछ बढ़ जाये, वे हमेशा मेरे पास परेशानसे आते, वे मुझे उन औषधियोंको लेनके लिए राजी करने में अत्यन्त कठिनाईसे ही सफल हो पाते, जिन्हें वे समझते थे कि मुझे लेनी ही चाहिए और मैं समझता था कि मुझे नहीं लेनी चाहिए (हँसी)। स्थिति ऐसी ही थी। मैंने इस पेशेके सम्बन्धमें अपने विचारोंका एक खाका ही आपके सामने रखा है, किन्तु अगर मैं आपको बतला दूँ कि मैं उच्चादर्शपूर्ण, वर्द्धमान किन्तु अभी मुट्ठीभर लोगोंतक ही सीमित उस विचारधाराका पोषक हूँ जो रोगकी चिकित्सा- की अपेक्षा उसके आमूल निवारणमें ज्यादा विश्वास करती है, जो यह मानती है कि प्रकृति अपने काम स्वयं पूरे कर लेती है और जो पीड़ित मानवताके लिए भी प्रकृतिको अपना काम स्वयं करने देने में विश्वास करती है तो आप मेरे विचारको ज्यादा अच्छी तरह समझ सकेंगे। जरूरत केवल इस बातकी है कि हम प्रकृतिको अपना काम करने दें। मैं उस विचार धाराका माननेवाला हूँ जिसके अनुसार डाक्टरों व वैद्यों और शल्य चिकित्सकोंकी ओरसे जितना ही कम हस्तक्षेप होगा उतना ही मानव-समाज और उसकी नैतिकता के लिए कल्याणकारी होगा। मैं उस चिकित्सक वर्गका हूँ जो तेजीके साथ इस निष्कर्षपर पहुँच रहा है कि चिकित्सकों का कर्त्तव्य केवल शारीरिक आवश्यकताओंकी पूर्ति करना नहीं, बल्कि यह भी उनका धार्मिक कर्त्तव्य है कि वे शरीर के अन्दर रहनेवाली उस आत्माका भी खयाल करें जो आखिरकार अविनाशी, अजर-अमर है। मैं उन चिकित्सकोंकी विचार धाराका पोषक हूँ जो सोचते हैं कि वे शरीर के लिए ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे, जिससे आत्माको, अन्तःकरणको, लेशमात्र भी

  1. सन् १९२४ में, देखिए खण्ड २३।
  2. सैसून अस्पताल, पूनाके सबसे बड़े सर्जन, जिन्होंने गांधीजीका ऑपरेशन किया था।