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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हानि पहुँचती हो। जब मैं अपने कुछ प्रख्यात चिकित्सक मित्रोंको—जो सचमुच मेरे मित्र ही हैं—बहुधा यह बहस करते हुए सुनता हूँ कि क्या आत्मा नामकी कोई वस्तु है भी, यदि होती तो वह उनके तेज चाकूसे बचकर नहीं जा सकती थी, तब—आप मेरी बातपर विश्वास कीजिए—मुझे बहुत दुःख होता है। उनको इस बारेमें कुछ भी मालूम नहीं है। शल्य चिकित्सकका चाकू आत्माको कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकता और चीरफाड़ चाहे जितनी गहरी की जाये, चाकू आत्मातक नहीं पहुँच पाता (हँसी)। इसलिए मुझे इस समारोहमें सम्मिलित होते बड़ा संकोच हो रहा है।

क्या अन्य स्थानोंकी अपेक्षा किसी स्थान विशेषमें अस्पतालोंकी संख्याका अधिक होना उसकी अपेक्षाकृत उन्नत सभ्यताका सूचक माना जाना चाहिए? क्या सचमुच यह सभ्यताकी कसौटी है? औषधोंके सूचीपत्रमें और चिकित्सकोंकी निर्देशिकाओंकी यह जानकारी कि औषधियोंकी बिक्री और अस्पतालोंमें तथा दवाखानोंमें मरीजों की संख्या में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हो रही है, क्या वास्तविक प्रगतिका लक्षण है? मुझे इसमें सन्देह है। किन्तु मैं जानता हूँ कि इसका दूसरा पक्ष भी है। मैं इस प्रश्नके एक पक्षपर ही जोर देनेकी चेष्टा नहीं करना चाहता। किन्तु मैंने पूरी विनम्रताके साथ [ये बातें] उन लोगोंके सामने विचारके लिए रखी हैं जिनको इस महान संस्थाके प्रबन्धका दायित्व सौंपा गया है। मैंने अबतक चिकित्सा पद्धति और शल्य चिकित्साके ही सम्बन्धमें सामान्य तौरपर कुछ बातें कही हैं, किन्तु जब मैं आयुर्वेदिक और यूनानी पद्धतियोंपर आता हूँ तो मुझे और भी सन्देह होने लगता है। आप शायद न जानते हों कि मैं अपने बचपन से ही बहुतसे वैद्योंके सम्पर्क में रहा हूँ। उनमें से कुछ तो अपनी बस्तियोंमें काफी प्रसिद्ध थे। एक ऐसा भी समय था जब मैं आयुर्वेदिक औषधियोंका बहुत बड़ा हामी था। और मैं पाश्चात्य औषधियोंका ही सेवन करनेवाले अपने मित्रोंको वैद्योंके पास जाने के लिए कहता था। किन्तु मुझे आपके सामने यह स्वीकार करते खेद होता है कि अब मेरा सारा भ्रम दूर हो चुका है। मैंने देखा है कि वैद्यों और हकीमोंमें विवेकशीलताका अभाव है। उनमें मानवीयताकी भी कमी है। विनयके बदले, मैंने उनमें यह अहंकार देखा है कि वे सब कुछ जानते हैं (हँसी), और ऐसी कोई बीमारी नहीं जिसका वे इलाज नहीं कर सकते (पुनः हँसी)। मैंने देखा, उनका यह विश्वास है कि वे नाड़ी देखकर ही जान सकते हैं कि रोगी 'एपेंडिसाइटिस' या इसी प्रकारके अन्य किसी रोगसे पीड़ित है या नहीं। जब मैंने समझ लिया कि उनका निदान गलत, और अधिकतर मामलोंमें अपूर्ण होता है तब मेरे मन में यह विचार आया कि यह तो पाखण्ड ही है। जब मैंने औषधियोंके विज्ञापनोंपर नजर डाली—मैं ऐसा नहीं कहता कि ये विज्ञापन कविराजोंके थे वे हकीमों और वैद्यराजोंके थे—तब मुझ लज्जासे सिर झुका लेना पड़ा। ये विज्ञापन मनुष्यकी निम्नतम वासनाको उभारते हैं और हमारे समाचारपत्रों और पत्रिकाओंको विकृत बनाते हैं। मैंने इन्हें ऐसी पत्रिकाओंमें देखा है जो स्त्री-शिक्षासे सम्बन्धित हैं। मैंने इन्हें ऐसे पत्रोंमें भी देखा है जो नवयुवकोंकी शिक्षा और ज्ञान-वृद्धिसे सम्बन्धित