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भाषण : अष्टाङ्ग आयुर्वेद विद्यालयके शिलान्यास-समारोहमें

हैं। मैंने पाया है कि ये विज्ञापन मनको ललचानेवाले तो होते हैं और ऐसी निन्द्य वस्तुओंके विज्ञापन छपानेवालोंको इनसे निश्चय ही अर्थ-लाभ भी होता है, पर मैंने महसूस किया कि ये लोग पीड़ित मानवताके मर्मस्थलोंको गहरा आघात पहुँचा रहे हैं।

इसीलिए इस भव्य संस्थाका शिलान्यास करने के साथ ही, और प्रार्थनापूर्ण हृदयसे इसकी सफलताकी कामना करनेके साथ ही मैं चाहता हूँ कि इसके आयोजनकर्त्ता मेरी मर्यादाओंको भी समझ लें और मेरी उस चेतावनीका अभिप्राय समझ लें जो मैंने उन लोगोंको दी है जिनसे संस्थाको आर्थिक सहायता देनेके लिए कहा गया है। मैं यह चेतावनी अत्यन्त विनम्रताके साथ दे रहा हूँ। ईश्वर करे यह संस्था उन लोगोंके लिए उपयोगी सिद्ध हो जो सचमुच पीड़ित हैं। ईश्वर करे यह संस्था न केवल शारीरिक आवश्यकताओंकी ओर ध्यान दे बल्कि उस अविनाशी आत्माकी ओर भी ध्यान दे जो शरीर में वास करती है। ईश्वर करे, इस संस्थाके बारेमें कभी कोई ऐसा न कह पाये कि यह मानवकी निम्नतम प्रवृत्तिको उभारती है, यह बंगालके नवयुवकोंकी निम्नतम रुचियोंकी तुष्टि करती है। मैं बंगालके नवयुवकोंको जानता हूँ। मैं जानता हूँ कि चिकित्सक औषधियाँ पिला-पिलाकर उनके सुन्दर जीवनको किस तरह खोखला बनाते जा रहे हैं। चिकित्सक भी ऐसे हैं, जो लॉर्ड जस्टिस स्टीफेनके शब्दोंमें, 'लोगोंके शरीरोंमें ऐसी औषधियाँ भरते जा रहे हैं जिनके बारेमें उनकी जानकारी बहुत ही थोड़ी है और लोगोंके शरीरके सम्बन्धमें उनका ज्ञान उतना भी नहीं है।'[१] इसलिए मैं वर्तमान व्यवस्थापकों और साथ ही भावी व्यवस्थापकोंसे उसी प्रकार आग्रहपूर्वक कहता हूँ जिस प्रकार कि मैंने मद्रासके इसी प्रकारके एक समारोहमें[२] कहा था कि वे विवेक, मानवीयता और सचाईसे काम लें और ईश्वरसे डरें। इन शब्दोंके साथ, मैं अपना भाषण समाप्त करता हूँ। आप लोग मुझे रास्ता दें तो मुझे उस स्थानपर जाने में अत्यन्त प्रसन्नता होगी, जहाँ मुझे आधारशिला रखनी है। मुझे संस्थाकी सफलताके लिए प्रार्थना करनेमें भी उतनी ही प्रसन्नता होगी।

[अंग्रेजीसे]
अमृतबाजार पत्रिका, ८–५–१९२५
  1. देखिए खण्ड ११, पृष्ठ ४३०।
  2. देखिए खण्ड २६, पृष्ठ ३८३–८४।