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१८. गो-रक्षा

सही हो या गलत, मैंने बड़े हिचकते, डरते और कांपते मनसे अखिल भारतीय गो-रक्षा मण्डलके संचालनका भार अपने कन्धोंपर लिया है। इस मण्डलकी स्थापना गत मासको २८ तारीखको बम्बईके माधव बागमें की गई थी।

यह एक बहुत बड़ा काम है जिसके लिए मैं सर्वथा अनुपयुक्त हूँ। मेरा खयाल है कि मैं रोगको समझता हूँ। मैं उसका उपचार भी जानता हूँ, किन्तु न तो मेरे पास समय है और न ऐसे आदमी ही हैं कि जो उन विचारोंको कार्यान्वित करें, जिनके अनुसार इस संस्थाको चलाना है।

गो-रक्षा मेरे लिए केवल गौओंकी रक्षा नहीं है। इसका अर्थ है संसारके समस्त असहाय और निर्बल प्राणियोंकी रक्षा करना। परन्तु अभी इस समय तो गो-रक्षाका अर्थ मुख्यतया गौ और उसकी सन्तति और व्युत्पत्तिके अनुसार सभी पशुओं, जैसे कि भैंसोंकी क्रूरता और वधसे रक्षा करना है।

संसारमें भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ २० करोड़से भी अधिक लोगोंके लिए गो-रक्षा एक धार्मिक कर्तव्य है। फिर भी भारतके मवेशी कृशकाय और दुर्बल हैं, उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता हैं, उन्हें पेट भर खाना नहीं मिलता, उनसे बहुत अधिक काम लिया जाता है, उनकी नस्ल बिगड़ती जा रही है और उनके बारेमें यहाँतक कहा जाता है कि ये देशके लिए भार स्वरूप हैं। अन्य किसी भी देशमें केवल इस कारण दूध देनेवाले मवेशियोंको बूचड़खानेमें नहीं ले जाया जाता कि वे समय से बहुत पहले ही दूध देना बन्द कर देते हैं। कदाचित् अन्य किसी देशके मवेशी उनके घासचारे इत्यादिपर होनेवाले खर्चसे कम कीमतका दूध नहीं देते।

इस हालतको कैसे सुधारा जाये? निःसन्देह ऐसी गो-रक्षा समितियोंकी संख्या बढ़ानेसे नहीं जो अपने कर्त्तव्यको नहीं जानतीं; और निःसन्देह मुसलमानोंके साथ ऐसी बातोंके लिए झगड़नेसे भी नहीं जो यदि वे चाहें भी तो उनके बसमें नहीं हैं। यहाँ मैं उन मुसलमानोंके बारेमें नहीं कह रहा हूँ जो हिन्दुओंकी भावनाको आघात पहुँचानेके खयालसे ही इरादतन अन्य पशुओंके सुलभ होते हुए भी, गोवध इस ढंगसे करते हैं मानो वे हिन्दुओंको दिखानेके लिए ही कर रहे हों। ऐसे उदाहरण अपवाद स्वरूप हैं। मैं मवेशी सम्बन्धी आय-व्ययकी बात सोच रहा हूँ। यदि हम उनकी देखभाल करें, तो शेष स्वयमेव ठीक हो जायेगा। यदि हमारे मवेशी आर्थिक रूपसे भार बने रहेंगे, और यदि यह दशा सुधारी नहीं जा सकती तो कोई भी उन्हें नष्ट होने तथा मारे जानसे कदापि नहीं बचा सकता। इसलिए इस समस्यापर शान्त भावसे, भावावेशमें आये बिना, विचार करनेकी आवश्यकता है। यदि धर्मके पीछे विवेक और प्रबुद्धता न हो तो वह एक निरर्थक भावना बनकर रह जाता है और तत्त्वहीनता के कारण उसका विनाश अवश्यम्भावी हो जाता है। वह ज्ञान ही है जो अन्तमें मुक्ति प्रदान करता है। यदि गो-भक्तिके साथ ज्ञानका मेल न हो तो उसे अकाल मृत्युके मुँहमें