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फिर वही
मुकाबिला भौतिक बल द्वारा कर सकते हैं? यदि हाँ, तो किस तरह? यदि नहीं तो फिर आपको यह अहिंसा सबलका अस्त्र किस तरह है? इन प्रश्नोंका असन्दिग्ध उत्तर दीजिए, जिससे कि कोई उसका अन्य अर्थ न लगा सके।
इसके साथ ही मैं आपसे ये प्रश्न और पूछ रहा हूँ। इन प्रश्नोंका सीधा सम्बन्ध आपके वक्तव्यसे है। क्या आपके स्वराज्यमें सेनाके लिए कोई स्थान है? क्या आपकी स्वराज्य सरकार फौज रखेगी? यदि हाँ तो क्या वह लड़ेगी या वह अपने शत्रुओंके मुकाबिलेमें सत्याग्रह करेगी?

हाँ, मेरे जीवन-सिद्धान्तोंमें क्षत्रियोंके लिए स्थान जरूर है पर मैंने उनकी परिभाषा 'गीता' से प्राप्त की है। जो समरसे अर्थात् खतरेसे पलायन नहीं करता वह क्षत्रिय है। ज्यों-ज्यों संसार प्रगति करता जाता है, त्यों-त्यों पुराने शब्द नया मूल्य ग्रहण करते जाते हैं। मनु तथा अन्य स्मृतिकारोंने आचारके शाश्वत : सर्वकालीन सिद्धान्त निर्धारित नहीं किये थे। उन्होंने जीवनके कुछ शाश्वत सिद्धान्तोंका निरूपण किया और उन्हीं सिद्धान्तोंको सामने रखकर, उनको थोड़ा या बहुत आधार मान कर अपने युगके लिए आचार-नियमोंकी सृष्टि रचना की। मैं स्वर्गमें प्रवेश पानेके लिए भी घूस और छल-कपटके साधनोंको अपनाने के लिए तैयार नहीं हूँ, फिर भारतकी स्वतन्त्रताकी तो बात ही क्या है? क्योंकि यदि ऐसे साधनोंसे स्वतन्त्रता या स्वर्ग मिला तो न वह आजादी आजादी होगी, न वह स्वर्ग स्वर्ग ही होगा।

स्वामी विवेकानन्दके जो वाक्य उद्धृत किये गये हैं उनकी पुष्टि मैंने नहीं की है। इस उद्धरणमें न तो वह ताजगी है न वह संक्षिप्तता ही जो उस महापुरुषकी अधिकांश रचनाओंमें पाई जाती है। पर वे चाहे उनके ग्रन्थोंसे लिये गये हों अथवा न लिये गये हों, उन्हें मेरा दिल गवारा नहीं कर रहा है। यदि बहुसंख्यक लोग अप्रतिकारके सिद्धान्तका पालन करने लगें तो संसारकी दशा वह न रहे जो आज है। जिन व्यक्तियोंने उसका पालन किया है उन्होंने गंवाया कुछ भी नहीं है। हिंसक व्यक्तियों और दुष्टात्माओंने उन्हें कत्ल नहीं कर डाला; बल्कि इसके विपरीत अहिंसाप्रेमी और सौजन्यपूर्ण व्यक्तियोंके समक्ष उनकी हिंस्रभावना और दुष्टता दोनों दूर हो गई हैं।

'गीता' का अपना अर्थ मैं पहले ही प्रकट कर चुका हूँ। उसमें पुण्य और पापके शाश्वत युद्धका वर्णन है। और, जब पुण्य और पापकी विभाजक रेखा बहुत सूक्ष्म हो जाती है, और जब कर्त्तव्यका निर्णय इतना कठिन हो, तब अर्जुनकी तरह किसमें मोह उत्पन्न नहीं होता?

फिर भी मैं इस बातका हृदयसे समर्थन करता हूँ कि सच्चा अहिंसा-परायण व्यक्ति वही है जो कि प्रहार करनेकी क्षमता रखते हुए भी अहिंसात्मक बना रहता हो। इसलिए मैं यह दावा जरूर करता हूँ कि मेरा शिष्य (और मेरा शिष्य सिर्फ एक ही है—मैं स्वयं) प्रहार करनेकी काबलियत जरूर रखता है। हाँ, यह मैं मानता हूँ कि वह इसमें प्रवीण नहीं है और शायद कारगर तौरपर प्रहार न भी कर सके। पर उसे ऐसा करनेकी जरा भी अभिलाषा नहीं है। मेरे जीवनमें मुझे अपने प्रतिपक्षि-