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बंगालके अनुभव

समझ नहीं सकते कि उनके लिए अपनी स्थितिका स्पष्टीकरण करना कितना आवश्यक है।

एक वे ही पागल बंगाली हों, यह बात भी नहीं है। महान् आचार्य राय भी तो हैं। वे जब मंचपर उछल-कूद करते हैं और कभी इस पैरको पटकते हैं और कभी उस पैरको, तब बिलकुल आत्मविस्मृत हो जाते हैं। बीच-बीच में वे अपने बंगलाभाषी श्रोताओंके सम्मुख बिना जरूरत अंग्रेजी बोलने लगते हैं। दूसरे लोग उनके बारेमें क्या खयाल करेंगे, वे इसकी परवाह ही नहीं करते। वे अपने विषयमें लीन हो जाते हैं। क्या कोई ऐसा मनुष्य, जो उन्हें भली-भाँति नहीं जानता, उन्हें देखकर कभी सोच सकता है कि वे संसारके एक महान वैज्ञानिक हैं? उन्हें अपने विज्ञान कालेजसे अब भी प्रेम है। उनके प्राण तो मानो उसीमें बसे हैं। किन्तु वे खादीके पीछे पागल हैं। उनका प्रेम विज्ञान और खादी दोनोंके बीच बँटा हुआ है। शायद वे खादीको वैज्ञानिक अनुसंधानकी सच्ची उपज मानते हैं। जो भी हो, जिस मनुष्यको प्रकृति से उसके मूल्यवान रहस्योंको छीनने के लिए अतिसूक्ष्म उपकरणोंके प्रयोगमें रत होना था, वह यदि अपने समयका उपयोग चरखा चलाने में करता है तो वह अवश्य ही पागल होगा। मैं ऐसे अनेक पागल बंगालियोंके नाम गिना सकता हूँ। किन्तु पाठकोंको इन दो उज्ज्वल नररत्नोंके उदाहरणोंसे ही सन्तोष मानना चाहिए।

पीछे कुछ नहीं

मुझे देशबन्धुकी बात फिर उठानी ही होगी। कितने ही लोगोंने मुझसे पूछा : 'आखिर देशबन्धुके इस घोषणा-पत्रके पीछे क्या है?' मैंने प्रश्न करनेवालोंकी तरफसे यही बात उनसे पूछी थी। उन्होंने इसका जोरदार और अपने ही ढंगका उत्तर दिया :

जितना सामने है, उतना ही उसके पीछे है। मेरा घोषणा-पत्र और मेरा भाषण यूरोपीय मित्रोंकी चुनौतीके जवाब हैं। मैंने उनसे बार-बार कहा है कि मैं हिंसासे घृणा करता हूँ। मैं मानता हूँ कि हिन्दुस्तानको आजादी अहिंसाके द्वारा ही मिल सकती है। तब उन्होंने मुझसे कहा, आप यही बात सर्वसाधारणमें दृढ़तापूर्वक स्पष्ट रूपसे कह दें। मुझे ऐसा करनेमें न तो कोई आपत्ति थी और न कोई हिचकिचाहट। मेरे घोषणा-पत्र और मेरे भाषणका सारा इतिहास यही है। उसमें मैंने क्रान्तिकारियोंके हिंसाभावकी और सरकारके दमनकी, जो कि हिंसाका ही दूसरा नाम है, दोनोंकी निन्दा की है। मैंने उनमें वे शर्तें भी पेश कर दी हैं जो मेरे जैसे एक स्वाभिमानी मनुष्यके सहयोगके लिए जरूरी हैं। कोई भी समझदार आदमी शान्त चित्तसे उनपर विचार करे और यदि उनमें या मेरी स्थिति सम्बन्धी वक्तव्यमें उसे दोष दिखाई दें तो वह मुझे बताये। अब आगे कार्रवाई करना यूरोपीयोंका और सरकारका काम है।

देशबन्धुका आशय जो मैंने समझा है, यही था। मैं उनके शब्दोंको देनेमें समर्थ नहीं हो पाया हूँ—मैंने तो सिर्फ उनके भावोंको—विचारोंको ही प्रस्तुत करनेका प्रयत्न किया है। उनका वक्तव्य बहुत ही संक्षिप्त, स्पष्ट और संयत है। उसमें