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भाषण : बुद्ध जयन्तीके अवसरपर

भीतर ग्रहण किये हुए है। मैं इस्लाममें भी वे ही बातें पाता हूँ तथा इस्लामकी खूबियोंको समझ सकता हूँ और उसकी प्रशंसाके गीत गा सकता हूँ। वैसा ही भाव मैं अन्य धर्मोंके माननेवालोंके प्रति रखता हूँ। फिर भी मेरे अन्दर कोई कहता है कि मैं इन बहुतसे धर्मोंके प्रति जो इतना आदर भाव व्यक्त करता हूँ, वह मेरे हिन्दू होनेका ही द्योतक है। इससे मेरे हिन्दुत्वमें किंचित भी कमी नहीं आती।

करीब ४० या ३८ वर्षोंकी बात है तब मैं किशोर था; इंग्लैंड गया था। मेरे हाथमें जो सबसे पहली धार्मिक पुस्तक रखी गई, वह थी 'लाइट ऑफ एशिया।' मैंने संसारके किसी भी धर्मके बारेमें कुछ भी नहीं पढ़ रखा था, इसलिए हिन्दू धर्मके बारेमें भी कुछ नहीं। मैं हिन्दू धर्मके बारेमें उतना ही जानता था जितना कि मेरे माता-पिताने मुझे सिखाया था, वह भी प्रत्यक्ष रूपसे नहीं बल्कि परोक्ष रूपसे, अर्थात् अपने आचरण। मुझे एक ब्राह्मणसे भी जिसके पास वे मुझे 'रामरक्षा स्तोत्र' पढ़नेके लिए भेजते थे, कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसी पूँजीके साथ मैं इंग्लैंडके लिए रवाना हुआ था। इसलिए 'लाइट ऑफ एशिया'को पाकर मैं उसे ध्यानसे पढ़ गया।

एक-एक पृष्ठ करके मैं उसे पढ़ता गया। मैं वास्तवमें साहित्य में कोई रुचि नहीं लेता था। पर इस पुस्तकके प्रत्येक पृष्ठसे मुझे जो मिला उसके कारण और आगे पढ़ते जानेका लोभ मैं संवरण नहीं कर सका और पुस्तक समाप्त करते-करते उन उपदेशोंपर मेरी श्रद्धा बड़ी गहरी जम गई। सर एडविन आर्नोंल्डने उनको बड़े ही सुन्दर ढंगसे सँजोया था। दक्षिण आफ्रिकामें अपनी वकालत प्रारम्भ करते समय मैंने उस पुस्तकको फिरसे पढ़ा। तबतक मैंने संसारके अन्य महान धर्मोंके बारेमें थोड़ा-बहुत पढ़ लिया था, किन्तु उस पुस्तकको दूसरी बार पढ़नेसे भी उसके प्रति मेरी श्रद्धामें कोई कमी नहीं आई। वस्तुतः बौद्ध धर्मसे मेरा इससे अधिक और कोई परिचय नहीं ह । यरवदा जेलमें भी मुझे कुछ धर्मग्रन्थोंको पढ़नेका अवसर मिला, किन्तु मुझे इस प्रकारके समारोहोंमें अध्यक्षता करनेके लिए क्यों बुलाया जाता है, इसका कारण मैं जानता हूँ। समारोह चाहे बुद्धके सम्बन्धमें हों, चाहे महावीरके, या चाहे वे ईसामसीहके सम्बन्धमें हों, इनमें मुझे इसलिए बुलाया जाता है कि मैं उनके उन श्रेष्ठतम उपदेशोंके अनुसार चलनेका यथाशक्ति प्रयत्न करता हूँ जिन्हें मैं अपने सीमित ज्ञानके बलपर समझने में समर्थ होता हूँ। बहुतसे मित्रोंका विचार है कि मैं बुद्धके उपदेशोंको अपने जीवनमें उतार रहा हूँ। मैं उनके इस प्रमाणपत्रको स्वीकार करता हूँ, और निःसंकोच कहता हूँ कि मैं उन उपदेशोंका अनुसरण करनेका यथाशक्य प्रयत्न कर रहा हूँ। बौद्ध आचार्यों तथा हिन्दू विद्यार्थियों—मैं विद्यार्थियोंके स्थानपर दार्शनिकोंको कहना चाहता था—की तरह मैं बौद्धधर्म और हिन्दूधर्मकी मूलभूत शिक्षाओं, उपदेशोंके बीच कोई भेद नहीं करता। मेरे विचारमें, बुद्धने अपने जीवनमें हिन्दू धर्मका ही अनुसरण किया था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे अपने उस एक बड़े विकट युगके सुधारक थे। तात्पर्य यह है कि वे गहरी सत्य-निष्ठावाले सुधारक थे, और उन्होंने अपने आत्मिक विकास तथा अपनी शारीरिक मुक्तिके लिए जिस सुधारको अपरिहार्य समझा उसे पूरा करनेमें किसी भी त्याग या कष्टके सामने