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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हार नहीं मानी। यदि ऐतिहासिक अभिलेख सही है, तो उस कालके विवेकहीन ब्राह्मणोंने स्वार्थलोलुप होनेके कारण ही उनके सुधारोंको ठुकरा दिया था। किन्तु जनता तो दार्शनिक नहीं थी कि दार्शनिक व्याख्याओंमें अपना समय बर्बाद करती। जनता तो दर्शनको कर्ममें उतारने में विश्वास करती थी। उसकी व्यवहारबुद्धि बड़ी प्रबल थी; इसलिए उसने ब्राह्मणोंके गर्व अर्थात् उनकी स्वार्थपरताको एक ओर रखकर बुद्धको अपने धर्मका सच्चा व्याख्याता स्वीकार करनेमें जरा भी संकोच नहीं किया। इसलिए जनताका ही एक आदमी होने तथा उनके बीच रहनेके कारण, मुझे भी लगा कि बौद्ध धर्म उस हिन्दू धर्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है कि जिसे जनताके हितोंके अनुरूप ढाल दिया गया है। इसलिए कभी-कभी शिक्षित लोग बुद्धके अत्यन्त सरल उपदेशोंसे सन्तुष्ट नहीं होते। वे उन्हें अपने बौद्धिक सन्तोषके लिए पढ़ते हैं, और उनको निराश होना पड़ता है। धर्मका सम्बन्ध मुख्यतया हृदयसे है, इसलिए जो व्यक्ति बौद्धिक अहंके साथ उसके पास जाता है, उसे तो निराश ही होना पड़ेगा।

मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि बुद्ध नास्तिक नहीं थे। जो व्यक्ति या भक्त ईश्वरके पास अहं लेकर जाता है, वह उसे नहीं मिलता। वह ऐसे व्यक्तियोंकां विश्वास नहीं करता जो प्रार्थनामें अपनी नाक जमीनपर रगड़ते हैं। वह नाकपर ऐसे निशान नहीं देखना चाहता। आपमें से कुछ लोग शायद यह जानते भी न हों कि बहुतसे मुसलमानोंके माथेपर वास्तवमें इस रगड़का चिह्न दीख पड़ता है, क्योंकि वे मस्जिदोंमें नमाजके समय रोज इस प्रकार अपने माथे रगड़ते हैं कि उनपर रुपये के बराबर और कभी-कभी इससे भी बड़ा निशान पड़ जाता है। ईश्वर इन निशानोंको नहीं चाहता। वह तो मनुष्यके मर्मको, उसके समूचे अस्तित्वको आरपार देख लेता है। कोई व्यक्ति चाहे अपनी नाक काटकर रख दे और उसे जमीनपर रगड़ता रहे, पर ईश्वर ऐसे व्यक्तिको भक्तके रूपमें स्वीकार नहीं करता जो नाक रगड़कर भक्तिका प्रदर्शन न करनेवाले लोगोंकी उपेक्षा करता हो, जिसके हृदयमें व्यथा न हो और जिसका हृदय दूसरोंके लिए सहज ही सहानुभूतिसे न भर आता हो। चूँकि जनता अर्थात् साधारण जन अहंसे सर्वथा अपरिचित रहते हैं, इसलिए वे अत्यन्त विनम्रताके साथ उसके पास पहुँच जाते हैं और दार्शनिक विचारोंको कर्ममें परिणत कर देते हैं; और हम इसीलिए निःसंकोच होकर उनका अनुसरण कर सकते हैं। मेरे विचारमें बौद्धधर्मकी यही मूलभूत शिक्षा है। यह मुख्य रूपसे जनताका धर्म है। मुझे उसके पास जाकर निराशा नहीं होती। मैं एक क्षणके लिए भी यह नहीं मानता कि बौद्धधर्म भारतसे निर्वासित हो चुका है। मैं देखता हूँ कि बौद्धधर्मकी प्रत्येक सारभूत विशेषताको बौद्धधर्मकी दुहाई देनेवाले देशों, चीन, लंका तथा जापानकी अपेक्षा, भारतमें ही अधिक व्यवहारमें लाया जा रहा है। मैं साहसके साथ कहता हूँ कि हम अपने बर्मी मित्रोंकी अपेक्षा भारतमें बहुत अधिक और बहुत अच्छे ढंग से बौद्ध धर्मके अनुसार आचरण करते हैं। बुद्धको यहाँसे हटाना असम्भव है। आप ऐसा नहीं कह सकते कि वह भारतमें पैदा नहीं हुए थे। वे अपने जीवन में ही अपना नाम भ्रमर कर गये थे। वे आज लाखों व्यक्तियोंके जीवनमें बसते हैं।